पंचायती राज-मंजिल दूर है

युगवार्ता    07-Mar-2025   
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पंचायती राज की धुरी ग्राम सभा है। ग्राम सभा का नाम लेते ही ग्राम स्वराज्य का सपना एक बड़े प्रश्‍न के रूप में हर नागरिक के मन में उभरता है। वही प्रश्‍न उत्तर चाहता है कि पंचायतों को अधिकार संपन्न बनने में कितना समय लगेगा!
पंचायती राज में ग्राम सभाभारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय ने एक रिपोर्ट जारी की है। यह 2024 के अध्ययन पर आधारित है। देश भर में पंचायतें कैसा कार्य कर रही हैं? यह प्रश्‍न उठता रहा है। इसका एक बड़ा कारण है। देश की सामाजिक, क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता के बीच स्थानीय स्वशासन का प्रश्‍न अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसलिए कि स्थानीय स्वशासन में जितनी पारदर्शिता होगी, उतनी ही उन्नति की संभावना बनेगी। अनेक कारणों से इसका अभाव है। सिर्फ पारदर्शिता का ही प्रश्‍न नहीं है, इसका भी है कि स्थानीय स्वशासन की धुरी पंचायती राज है। पंचायती राज की धुरी ग्राम सभा है। ग्राम सभा का नाम लेते ही ग्राम स्वराज्य का सपना एक बड़े प्रश्‍न के रूप में हर नागरिक के मन में उभरता है। वही प्रश्‍न उत्तर चाहता है कि पंचायतों को अधिकार संपन्न बनने में कितना समय लगेगा!
इसका एक इतिहास है। वह कम से कम 120 साल पुराना है। इसका यह अर्थ है कि ग्राम स्वराज्य स्वतंत्रता संग्राम में केंद्रीय विषय था। इसे दादा भाई नौरोजी ने स्वशासन कहा। महात्मा गांधी ने स्वराज्य कहा। उन्होंने स्वराज्य के बारे में चार बातें कही। एक, स्वराज्य एक पवित्र शब्द है। वह एक वैदिक शब्द है। जिसका अर्थ है, आत्म शासन और आत्म संयम। दो, स्वराज्य से मेरा अभिप्राय है लोक सम्मति से चलने वाला भारत वर्ष का शासन। तीन, हमारी शासन पद्धति गांव की प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए। चार, स्वराज्य ही राम राज्य है। गांधी जी का पहला और अंतिम सपना एक ही था। वह स्वराज्य था। उसे साकार करने के लिए संविधान निर्माताओं ने पंचायत प्रणाली अपनाने की सलाह दी थी।
भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय की रिपोर्ट से विभिन्न राज्यों में पंचायत प्रणाली के काम-काज की खबर मिलती है, कुछ सुखद तो ज्यादातर कष्‍टदायक। संविधान में पंचायत प्रणाली की व्यवस्था है। 73वें संविधान संशोधन से यह प्रणाली लागू हुई। संविधान का वह संशोधन ऐतिहासिक है। हालांकि वह संशोधन देर से हुआ लेकिन उस सपने की दिशा में उसे पहला कदम कहा जा सकता है जिसका संबंध ग्राम स्वराज्य से है। इससे यह आशा बंधी कि पंचायत प्रणाली के लागू हो जाने पर दो बातें होंगी। एक कि लोकतंत्र की जड़ें गहरी होंगी। दो कि गांवों में खुशहाली के लिए बंद दरवाजे और खिड़कियां खुलती जाएंगी। उस संविधान संशोधन से त्रिस्तरीय (गांव, प्रखंड, जिला पंचायत) पंचायत प्रणाली का प्रावधान हुआ। पंचायत का कार्यकाल पांच साल निर्धारित किया गया। उसका चुनाव कराने के लिए एक राज्य निर्वाचन आयोग बनाया गया। आज निर्वाचित पंचायतें पूरे देश में हैं।
वे एक निर्धारित चुनाव प्रक्रिया से बनी हैं। करीब 35 लाख पंचायत प्रतिनिधि देश भर में हैं। उनमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, महिला और पिछड़े समूहों के प्रतिनिधि भी हैं। उनके लिए आरक्षण की एक व्यवस्था है। पंचायतों को विकास के 29 कार्यों की जिम्मेदारी संविधान में दी गई है। यह प्रश्‍न भी है कि क्या राज्य सरकारों ने पंचायतों को इसके अधिकार सौंपे हैं? संविधान संशोधनों से जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी के आधार पर सत्ता का विकेंद्रीकरण सुनिश्चित किया गया है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था तीन दशक पहले हुई। पंचायती राज मंत्रालय ने जो अध्ययन कराया है वह यह जानने का प्रयास है कि क्या उस संवैधानिक व्यवस्था को राज्य सरकारों ने कितनी गंभीरता, पारदर्शिता और जवाबदेही से अपने यहां लागू किया है। इस अध्ययन से यह स्पष्‍ट हुआ है कि मंजिल अभी दूर है। वह बहुत दूर है। ऐसा क्यों है?
क्या इसलिए है कि सरकारें उदासीन हैं? क्या इसलिए है कि शासन तंत्र नहीं चाहता कि पंचायत प्रणाली प्रभावी बने? क्या शासन तंत्र के सूत्रधार पंचायत प्रणाली से खौफ खाते हैं? क्या राजनीतिक नेतृत्व ग्राम स्वराज्य की सही समझ से बहुत दूर है? क्या पंचायत प्रणाली के वर्तमान स्वरूप में ढांचागत दोष हैं? ये प्रश्‍न थोड़े हैं। इनकी संख्या बढ़ती जाएगी अगर हर पहलू से देखकर प्रश्‍न बनाए जाएं। स्वभाविक है कि ये प्रश्‍न प्रमुख हैं और जो इसमें जुड़ते जाएंगे, वे उसी कड़ी में होंगे। पंचायती राज प्रणाली के अध्ययन से जो बातें सामने आई हैं, वे भी इन प्रश्‍नों के महत्व को पुन: रेखांकित करती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सामने एक लक्ष्य रखा है। वह विकसित भारत का है।
विकसित भारत ही उन्नत भारत होगा। ऐसे भारत का आधार ग्राम स्वराज्य ही होगा। यह कोई कल्पना नहीं है, बल्कि भारत का एक ऐतिहासिक यथार्थ है। इसके बारे में पहले जानकारी नहीं थी। अब है। इतिहासकार धर्मपाल के अध्ययन से इसके ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। दुनिया के दूसरे इतिहासकारों ने भी अब यह माना है कि 17वीं सदी में भारत की अर्थव्यवस्था का दुनिया में अंश 38 फीसद था। यह तथ्य चौंकाता है। लेकिन साथ ही साथ यह आंख भी खोलता है कि उस समय भारत के गांव स्वशासी, स्वावलंबी और संपन्न थे। उनकी इन तीन खूबियों से भारत भी संपन्न था। वही तीन खूबियां ग्राम स्वराज्य में आकर्षण पैदा करती है।
स्पष्‍ट है कि विकसित भारत के लक्ष्य को पाने के लिए पंचायत प्रणाली को अधिक सक्षम, प्रभावी और परिणामकारी बनाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे बारबार दोहराया है कि शासन संविधान से चलेगा। पंचायत प्रणाली के अध्ययन का एक लक्ष्य यह भी है कि क्या पंचायतें संविधान के अनुरूप कार्य कर रही हैं? यह तो सभी जानते हैं कि पंचायतें निर्वाचित हैं। भारत में पंचायतों का दो स्वरूप है। वे दोनों संवैधानिक प्रावधान से निकले हैं। पहला है, 73वां संविधान संशोधन। इससे पंचायती राज व्यवस्था में एक निश्चित और अधिकार संपन्न स्थानीय सरकार बननी चाहिए। दूसरा है, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम 1996। जिसे बोलचाल में पेसा कानून कहते हैं।
पेसा कानून की कहानी घुमावदार है। इसके उतार-चढ़ाव हैं। देश के दस राज्यों में जहां अनुसचित जनजाति क्षेत्र हैं, वहां पेसा कानून से पंचायत प्रणाली चल रही है। अनेक ऐसे अंचल हैं जहां स्वशासन की यादें हैं और वे दो हजार साल पुरानी हैं। झारखंड अंचल के इतिहासकारों ने यह खोजा है कि मुगलकाल में भी स्वशासन की आंचलिक विधियां थीं। इसका विस्तृत वर्णन प्राप्त है। जिससे यह पता चलता है कि जल, जंगल और जमीन के बारे में निर्णय वहां के लोग करते थे। जंगल से जड़ी-बूटियों का कारोबार वे ही निर्धारित करते थे। संविधान सभा मेंअनुसचित जनजाति क्षेत्र के प्रश्‍नों को उनके प्रतिनिधियों ने बहुत ढंग से उठाया। लेकिन पुराने नियम-कानून चलते रहे। इस कारण आंदोलन भी हुए। यह आवाज भी उठी- 'हमारा गांव-हमारा राज'।
“पेसा कानून से आदिवासी परंपरा को संवैधानिक मान्यता मिली है। लेकिन शासनतंत्र की दृष्टि से यह बड़ी चुनौती भी है। इसलिए है क्योंकि शासन तंत्र का रंग-ढंग आदिवासियों के अनुरूप कम है और उनके अनुरूप ज्यादा है जो शोषण के सूत्रधार हैं। ”
यह आवाज एक आंदोलन बनी। उसे भारत सरकार अनसूनी नहीं कर सकती थी। परिणामस्वरूप उसे एक निर्णय लेना पड़ा। प्रश्‍न था कि अनुसचित क्षेत्र के लिए उचित और व्यापक कानून कैसा हो, जो पंचायत प्रणाली को वहां के परिवेश में लागू कर सके। इसके लिए एक कमेटी बनी। वह दिलीप सिंह भूरिया कमेटी थी। उस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के लिए पंचायतों का जो विशेष अधिनियम बना वह पेसा है। यह अनुसूचित जनजाति क्षेत्र के स्वशासन के सपने में पंख को बल प्रदान करता है। पंख में जितना बल होगा, उतनी ही ऊंची उड़ान होगी। पेसा कानून की एक बड़ी विशेषता है। यह आदिवासी परंपराओं को कानूनी परिधान में प्रस्तुत करता है। जिसमें त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली कार्य कर सके।
पेसा कानून से आदिवासी परंपरा को संवैधानिक मान्यता मिली है। लेकिन शासनतंत्र की दृष्टि से यह बड़ी चुनौती भी है। इसलिए है क्योंकि शासन तंत्र का रंग-ढंग आदिवासियों के अनुरूप कम है और उनके अनुरूप ज्यादा है जो शोषण के सूत्रधार हैं। पंचायती राज मंत्रालय ने पेसा कानून की भी सुध ली है। जो बातें सामने आई हैं वे नई नहीं हैं लेकिन पुन: यह स्पष्‍ट हुआ है कि पेसा के लागू होने में कठिनाइयां आ रही हैं। जिन संस्थाओं ने इस बारे में अध्ययन किया है उन्होंने पाया है कि चार बड़ी बाधाएं हैं। पहली, जिलाधिकारी का दृष्टिकोण पेसा के विपरीत है। दूसरी, विधानसभाएं पेसा को महत्व नहीं देती। तीसरी, पेसा को संरक्षण जो मिलना चाहिए वह नहीं है। चौथी, अफसरों और औद्योगिक घरानों का बड़ा गठजोड़ है। वह शक्तिशाली भी हैं।
इनका प्रभाव व्यापक है। पेसा से प्रगति रूकी हुई है। इसके लिए जन-जागरूकता जरूरी है। तभी प्रगति की राहें खुलेंगी। लोगों का नजरिया भी बदलेगा। सोचने का तरीका जब तक नहीं बदलता, तब तक पेसा प्रभावी नहीं होगा। सांसद और विधायक भी स्वशासन की इकाइयों में बाधक बने हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर पंचायत प्रणाली मजबूत हुई तो उनका प्रभाव घटेगा। इसलिए प्रश्‍न है कि अनुसूचित जनजाति क्षेत्र में पंचायत प्रणाली किस प्रकार गति पकड़े और उसके लिए क्या-क्या कदम उठाए जाने चाहिए। ग्राम सभाओं को उनका अधिकार कैसे प्राप्त हो? यह प्रश्‍न भी है। इसका समाधान अनुसूचित जनजाति क्षेत्र के नागरिकों में जागरण से संभव है।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।