आसान नहीं है सावरकर होना

युगवार्ता    25-Mar-2025   
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 ब्रिटिश हुकूमत को वीर सावरकर के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए एक मौके की तलाश थी। उसकी यह हसरत कर्जन विली की हत्या ने पूरी कर दी। विली को गोली मारी थी मदन लाल ढींगरा ने, लेकिन आरोप सावरकर के माथे मढ़ दिया गया। पेश है, एक रिपोर्ट...
कहानी शुरू होती है 1 जुलाई 1909 से, मदन लाल ढींगरा ने कर्जन विली को गोली मार दी। विली भारतीय मामलों के मंत्री के सहयोगी थे। यह वही समय है, जब विनायक दामोदर सावरकर के खिलाफ अंग्रेजों को कार्रवाई का मौका दिखा। दरअसल, हत्या तो ढींगरा ने की थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार इसके पीछे सावरकर का हाथ मान रही थी। मदन लाल ढींगरा पर मुकदमा चला, डेढ़ महीने बाद 17 अगस्त 1909 को उन्हें फांसी दे दी गई। लेकिन, सावरकर के लिए मुश्किलें बढ़ चुकी थीं।
 
सावरकर पहले ही पेरिस जा चुके थे। उन्हें पता था कि फ्रांस की धरती पर इंग्लैंड का कानून किसी काम का नहीं। लेकिन मार्च 1910 में वह जैसे ही लंदन वापस आए, उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। पुलिस उनके पुराने रिकॉर्ड खंगालने लगी। उनके भाषणों की जांच होने लगी। उन्हें फुजिटिव (भगोड़ा) ऑफेंडर्स एक्ट 1881 के तहत भारत भेजने का फैसला किया गया, ताकि अधिकतम सजा हो सके।
 साल 1910 तारीख 1 जुलाई। इंग्लैंड के टिलबरी बंदरगाह से ‘एस एस मोरया’ जहाज रवाना हुआ, जिसमें सावरकर के साथ अंग्रेज अफसर सीजे पावर और एडवर्ड पारकर शामिल थे। इसके अलावा दो भारतीय हेड कांस्टेबल मोहम्मद सिद्दीकी और अमर सिंह भी सवार थे। उन्हें सावरकर पर कड़ी नजर रखने के लिए कहा गया था।
 7 जुलाई को जहाज फ्रांस के बंदरगाह मार्सेयेज पहुंचा। सावरकर के लिए यह उपयुक्त समय था। सावरकर यह समझ रहे थे कि एक बार वह फ्रांस की जमीन पर पहुंच जाएं, तो उन पर ब्रिटिश कानून नहीं लागू होगा। वैभव पुरंदरे अपनी किताब ‘सावरकर, दी ट्रू स्टोरी ऑफ दी फादर ऑफ हिंदुत्व’ में उद्धृत करते हैं कि अमर सिंह ने शौचालय में झांककर देखा, तो उसके होश उड़ गए। सावरकर एक छोटे से छेद से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे और उनका आधा शरीर बाहर निकल भी चुका था। अमर सिंह चिल्लाया और शौचालय का दरवाजा खोलने के लिए दौड़ा। तब तक सावरकर पॉटहोल से पानी में कूद चुके थे। उन पर दो गोलियां भी चलाई गईं, लेकिन वह बच निकले और तैरते हुए किनारे पर पहुंच गए।
 
विक्रम संपत अपनी किताब ‘इकोज फ्राॅम ए फारगेटन पास्ट’ में लिखते हैं कि इस बीच फ्रांस के सैनिक अफसर ब्रिगेडियर पेस्की भी सावरकर का पीछा करने वालों में शामिल हो चुके थे। थोड़ी देर बाद वह सावरकर को पकड़ने में कामयाब हो गए। सावरकर ने पकड़े जाने पर फ्रेंच अफसर को संबोधित करते हुए कहा, मुझे गिरफ्तार करो, मजिस्ट्रेट के सामने ले चलो। सावरकर का मानना था कि अब वह फ्रांस की भूमि पर हैं, इसलिए अगर उन पर मुकदमा चलता है तो फ्रांस के कानून के अनुसार ही होगा। फ्रांस की धरती पर ब्रिटिश कानून लागू नहीं होंगे। राजनीतिक कैदी के तौर पर वह फ्रांस में राजनीतिक शरण पाने के हकदार थे। लेकिन ब्रिगेडियर पेस्की को एक शब्द भी अंग्रेजी नहीं आती थी और वह समझ ही नहीं सके कि सावरकर क्या कह रहे हैं। पेस्की ने सावरकर को भारतीय पुलिस वालों के हवाले कर दिया। वे उन्हें खींचते हुए फिर से उनके केबिन में ले गए। वहां सावरकर के साथ बहुत खराब व्यवहार किया गया और उन्हें हथकड़ियां पहना दी गईं।
 
इसी बीच फ्रांस की प्रेस ने ब्रिगेडियर पेस्की की कार्रवाई की ‘नेशनल स्कैंडल’ कहकर आलोचना की कि जिस तरह एक राजनीतिक कैदी को ब्रिटेन के अधिकारियों को फ्रांस की धरती पर फिर से गिरफ्तार करने दिया गया, यह फ्रांस की प्रभुसत्ता का उल्लंघन है। फ्रांसीसी अखबारों ने सावरकर को फ्रांस में दोबारा गिरफ्तार किए जाने की आलोचना की। कुछ दिनों बाद ब्रिटेन में फ्रांस के राजदूत पियरे कौमबौन ने सावरकर के फ्रांस प्रत्यर्पण की मांग की। इंग्लैंड के पत्रकार एवं सावरकर के मित्र ने भी इस प्रकरण को ताजा रखा। फ्रांस पर इसका बहुत दबाव था। वहीं, कार्ल मार्क्स के पोते जीन लॉन्गुएट ने अपने अखबार ले-पॉपुलारे में भी इस प्रकरण को उठाया और इसे जिंदा रखा। इस मामले को हेग की अंतर्राष्ट्रीय अदालत में ले जाया गया। हालांकि अदालत ने ब्रिटेन के पक्ष में अपना फैसला सुनाया, जिसकी काफी आलोचना भी हुई।
 
कार्ल मार्क्स के पोते की सावरकर पर टिप्पणी

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जीन लॉन्गुएट कहते हैं, 22 वर्षीय सावरकर बॉम्बे विश्वविद्यालय में कानून के छात्र थे। वह प्रसिद्ध नेता तिलक के सहायक बन गए। उसी समय उन्होंने अपने मूल शहर नासिक में मित्र मेला के नाम से एक राष्ट्रीय संघ बनाया, जो पूरे डेक्कन में सक्रिय प्रचार में लगा हुआ था। बैठकें आयोजित कर रहा था। उनमें शिवाजी, रामदास जैसे महान राष्ट्रीय क्रांतिकारियों और माजिनी जैसे विदेशी क्रांतिकारियों की जीवनियां पढ़ी जाती थीं। अपने बड़े भाई गणेश के साथ सावरकर इतालवी स्वतंत्रता के संस्थापकों की नीति के अनुसार, अपने देशवासियों के सशस्त्र विद्रोह की वकालत करते हुए, पूरे जोश के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रचार कर रहे थे। सबसे महत्वपूर्ण बात लॉन्गुएट ने निष्कर्ष में कही, जो उनकी सोच को दर्शाती है। 1857 की क्रांति का इतिहास उन्होंने लिखा, जिसने दिखाया कि भारत एकता, स्वतंत्रता और लोकप्रिय शक्ति के मार्ग में कितना आगे था। इसकी विफलता ऊर्जाहीन स्वार्थी गद्दारों के कारण हुई, जिन्होंने दुश्मन की मदद की। लेकिन जो तलवार लेकर लड़ रहे थे, जिनकी रगों में गर्म खून अभी भी उबल रहा था, जो हंसते-हंसते आजादी के लिए मृत्यु के मैदान में लड़ रहे थे, उनके खिलाफ एक भी आलोचना का शब्द नहीं उठाना चाहिए। वे मूर्ख नहीं थे, लापरवाह नहीं थे और हार के लिए जिम्मेदार भी नहीं। इसलिए हम उन्हें दोष नहीं दे सकते। यह उनका ही आह्वान है, जिसने भारत माता को गुलामी से आजाद कराने के लिए, आगे बढ़ने के लिए लोगों को गहरी नींद से जगाया है। माक्र्स के पोते लॉन्गुएट, जो अपने दादा की विचारधारा का भी पालन करते थे, ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और एक वकील के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया। वह फ्रांसीसी अखबार ले-पॉपुलारे के संस्थापक-संपादक भी थे और फ्रांस में एक प्रमुख समाजवादी नेता थे।
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एआई समिट में भारत ने की सह-अध्यक्षता

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11 फरवरी 2025 को फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस में आयोजित ‘एआई एक्शन समिट’ की सह-अध्यक्षता की। यह सह-मेजबानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) पर केंद्रित है। शिखर सम्मेलन में अमेरिकी उप-राष्ट्रपति जेडी वेंस, चीनी उप-प्रधानमंत्री झांग गुओकियांग, कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी दिग्गज तकनीकी कंपनियों के अधिकारियों (सीईओ) सहित विश्व के कई नेताओं ने भाग लिया। सम्मेलन के अंत में फ्रांस ने घोषणा की कि भारत एआई पर अगले अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा। इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य उपयोगकर्ताओं की एक विस्तृत श्रंखला को स्वतंत्र, सुरक्षित और विश्वसनीय एआई तक पहुंच प्रदान करना। ऐसी एआई विकसित करना, जो पर्यावरण के अधिक अनुकूल हो। एक ऐसी कृत्रिम बुद्धिमत्ता का वैश्विक प्रशासन सुनिश्चित करना, जो प्रभावी और समावेशी हो।
भारत की स्वतंत्रता की यात्रा में मार्सेयेज का खास महत्व है। यहीं पर महान वीर सावरकर ने साहसिक पलायन का प्रयास किया था। मैं मार्सेयेज के लोगों और उस समय के फ्रांसीसी आंदोलनकारियों का भी धन्यवाद करना चाहता हूं, जिन्होंने यह मांग की थी कि उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों को नहीं सौंपा जाए। वीर सावरकर आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करते हैं।
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री
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सौरव राय

सौरव राय (वरिष्‍ठ संवाददाता)
इन्हें घुमक्कड़ी और नई चीजों को जानने-समझने का शौक है। यही घुमक्कड़ी इन्हें पत्रकारिता में ले आया। अब इनका शौक ही इनका पेशा हो गया है। लेकिन इस पेशा में भी समाज के प्रति जवाबदेही और संजीदगी इनके लिए सर्वोपरि है। इन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्नातकोत्तर और फिर एम.फिल. किया है। वर्तमान में ये हिन्दुस्थान समाचार समूह की पत्रिका ‘युगवार्ता’ साप्ताहिक में वरिष्‍ठ संवाददाता हैं।