‘मेरी मृत्यु पर शोक मत करो, क्योंकि मैं हथियार लेकर, योद्धा के कपड़े पहन कर मरूंगा। यह सबसे सुखद मृत्यु है, जो कोई भी मर सकता है। मुझे बहुत खेद है कि मैं अपने परिवार के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पाया, क्योंकि ईश्वर ने मुझे पहले ही बुला लिया है।’ यह खत लुधियाना के एक सैनिक ने प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस के मार्सेली से अपने परिवार को लिखा था। यह जज्बा प्रथम विश्व युद्ध में भारत के योगदान को बता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मेक्रों ने जिस तरह उन शहीदों को याद किया, वह उनके जज्बे को साफ तौर पर बयान करता है।
इतिहास के पन्नों में
1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया। ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। इन दोनों देशों के पीछे और कई देश लामबंद हुए। मित्र देशों में ब्रिटेन का साथ फ्रांस दे रहा था और भारत ब्रिटेन की कॉलोनी थी। देश के कुछ वर्गों की राय थी कि भारत अपने सहयोगियों की रक्षा में ब्रिटिशों की मदद करके अधिक राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त कर सकता है। लंदन में युद्ध परिषद ने दो डिवीजनों का गठन किया। एक का नाम था, लाहौर डिवीजन और दूसरे का मेरठ डिवीजन। तारीख थी, 6 अगस्त 1914। लाहौर टुकड़ी को मिस्र में स्वेज नहर की रक्षा के लिए जाना था। लेकिन बाद में फैसला किया गया कि इस टुकड़ी को भी फ्रांस के मार्सेली ही भेजा जाए। यह टुकड़ी 26 सितंबर 1914 को वहां पहुंच गई। थोड़ी-बहुत ट्रेनिंग के बाद इन्हें 24 अक्टूबर 1914 को इनके समकक्ष मेरठ टुकड़ी के साथ शामिल कर दिया गया। स्थिति बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। गीली और कीचड़ भरी खाइयों में खुद को ढालना भारतीय सैनिकों के लिए एक कठिन कार्य साबित हुआ। रिपोर्ट्स के अनुसार, कई सैनिक कड़ाके की ठंड में निमोनिया से मर गए या ट्रेंच फीट से पीड़ित हो गए। समय पर इलाज न होने के कारण ऐसे सैनिकों के पैर काटने पड़े। अप्रैल 1915 में पहली बार रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया, जिसकी खूब आलोचना हुई। लेकिन इसे झेलने वालों में भारतीय सैनिक भी शामिल थे। वहां से कई सैनिकों ने अपने परिवार को खत भी लिखे, जो ब्रिटिश लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें से कुछ खतों को सार्वजनिक भी किया गया। एक गढ़वाली सैनिक ने लिखा, ‘बमों को सहना बहुत कठिन है पिताजी। किसी के लिए भी युद्ध से बचकर सुरक्षित वापस आना मुश्किल होगा। जो बेटा बहुत भाग्यशाली होगा, वह अपने पिता और मां को देख पाएगा, अन्यथा ऐसा कौन कर सकता है? बचने का कोई भरोसा नहीं है। गोलियां और तोप के गोले बर्फ की तरह नीचे गिरते हैं। कीचड़ आदमी के पेट तक है।’
मार्च 1916 में एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी पत्रिका ‘ले बोचोफेज’ में लिखा गया था, ‘नरक आग नहीं है, नरक कीचड़ है। कई रिपोर्ट्स में यह साफ विवरण मिलता है कि भारतीय सैनिकों की सबसे बड़ी समस्या भाषा थी। उसके बाद हथियारों की ट्रेनिंग। उन्हें वे हथियार दिए गए, जिन्हें उन्होंने कभी देखा ही नहीं था। मौसम और ठंड तो उनके लिए नरक से कम नहीं था। लेकिन इन सबके बावजूद विपरीत परिस्थितियों में भारतीय सैनिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नवंबर 1914 में 39वीं गढ़वाल राइफल्स को एक आदेश दिया गया कि उन्हें जर्मनों द्वारा कब्जा की गई खाइयों के एक हिस्से पर फिर से कब्जा करना है। इतिहास में यह दर्ज है कि नायक दरवान सिंह, जो प्रमुख स्काउट थे, ने गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद तब तक आगे बढ़कर नेतृत्व करना जारी रखा, जब तक कि सभी खाइयों को साफ नहीं कर दिया गया। वह विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले दूसरे भारतीय सैनिक बन गए। भारतीय सैनिक यहीं नहीं रुके। रिपोर्ट्स के अनुसार, नुएवे-चैपल, गिवेंची-लेस-ला-बासी, फेस्टुबर्ट, ऑबर्स रिज और लूज आदि जगहों में कई प्रमुख लड़ाइयों में उन्होंने अपनी शौर्य गाथा को अमर किया।
इतिहास को समेटे ‘मजारगुएस’
1914-18 के युद्ध के दौरान मार्सिले फ्रांस में भारतीय सैनिकों का अड्डा था और पूरे युद्ध के दौरान रॉयल नेवी, मर्चेंट नेवी, ब्रिटिश सैनिक और श्रमिक इकाइयां इस बंदरगाह पर काम करती थीं या यहां से होकर गुजरती थीं। शहर में स्थित सेंट पियरे कब्रिस्तान में 1914-16 में हिंदू सैनिकों और मजदूरों के शवों का अंतिम संस्कार किया गया था। मजारगुएस की आधिकारिक सूचना के अनुसार, मजारगुएस कब्रिस्तान का उपयोग युद्ध में कम किया गया था। लेकिन बाद में इस स्थल पर 1914-18 के 1,487 और 1939-45 के 267 युद्ध बलिदानियों की याद में स्मारक बनाए गए हैं। इनमें 205 भारतीय योद्धाओं के बलिदान को भी स्मारक बनाकर जगह दी गई है। जुलाई 1925 में फील्ड मार्शल सर विलियम बर्डवुड ने मजारगुएस इंडियन मेमोरियल का अनावरण किया था। एक रिपोर्ट के अनुसार, मजारगुएस कब्रिस्तान में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान दफनाए गए 993 सैनिकों के साथ-साथ ब्रिटेन के 465 सैनिक भी शामिल हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दफनाए गए 199 सैनिकों में ब्रिटेन के 43 सैनिक और बाकी अन्य देश शामिल हैं। कब्रिस्तान कुल 9,021 वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी ने फ्रांस की यात्रा के दौरान वहां जाकर शहीदों को याद किया तथा भारत द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में दिए गए बलिदान को विश्व शांति के लिए दिया गया बलिदान बताया।
भारत के लिए खास है मार्सेली
मार्सेली से भारत का कुछ खास रिश्ता है। यह वही जगह है, जहां वीर सावरकर 1910 में एक जहाज से कूदकर फ्रांस की धरती पर पहुंचे थे। इसके बाद यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना और ब्रिटेन की काफी किरकिरी भी हुई। दूसरी बार भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध में अपना योगदान देने के लिए इस धरती पर कदम रखा। तीसरी सबसे बड़ी कूटनीतिक बातचीत जी-20 शिखर सम्मेलन 2023 के दौरान नई दिल्ली में की गई थी। इसमें भारत और फ्रांस के बीच व्यापार के लिए एक काॅरिडोर बनाना तय हुआ। यह भारत-मध्य पूर्व-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर के प्रमुख एंट्री प्वाइंट में से एक है। आईएमईसी परियोजना में दो अलग-अलग गलियारे शामिल हैं। पूर्वी गलियारा, जो भारत को अरब की खाड़ी से जोड़ता है और उत्तरी गलियारा, जो खाड़ी क्षेत्र को यूरोप से जोड़ता है। इन गलियारों में रेल, जहाज से रेल संपर्क और सड़क नेटवर्क सहित परिवहन स्ट्रक्चर शामिल है। इसमें फ्रांस के मार्सेली तट का महत्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि यूरोप में एंट्री प्वाइंट संभवतः मार्सेली तट है।
इमैनुएल मैक्रों
इमैनुएल मैक्रों ने एक्स पर लिखा, ‘1914 में 100,000 से अधिक भारतीयों ने फ्रांस के लिए लड़ाई लड़ी। दस हजार भारतीय कभी वापस नहीं लौटे। उन्होंने खाइयों की मिट्टी में लड़ने से पहले मार्सेली की धरती पर कदम रखा, इस बात से अनजान कि वे अपनी मौत की ओर बढ़ रहे थे। उनका बलिदान फ्रांस और भारत को हमेशा के लिए बांधता है।’