राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा स्थापित ‘भारंगम’ के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर दिल्ली समेत तेरह शहरों के साथ ही काठमांडू और कोलंबो में 28 जनवरी से 16 फरवरी तक विभिन्न नाटकों का मंचन किया गया, जिनमें देश के अतिरिक्त विदेशी कलाकारों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। एनएसडी के निदेशक चित्तरंजन त्रिपाठी से राकेश कुमार ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं, प्रमुख अंश...
चितरंजन त्रिपाठी की यात्रा चाँदवाली, कटक, हैदराबाद, दिल्ली, लंदन, चंडीगढ़, मुंबई होते हुए पुन: दिल्ली। कैसी रही यह यात्रा, थके तो नहीं?
- यात्रा तो मजेदार ही होती है। दु:ख तो तब है, जब ठहरना पड़ जाए। चलती का नाम ही तो जिंदगी है। मानव अपनी यात्रा में विभिन्न स्थानों से होकर गुजरता है। मैं भी गुजरा। इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं। लेकिन यह अन्य यात्राओं की अपेक्षा थोड़ा अलग है, क्योंकि मैं खुद को तलाश रहा था, तराश रहा था। अंदर की भावनाओं को एक मंच देना चाहता था, इसलिए हर क्षेत्र में गया। पर कहीं से निराश नहीं लौटा। सबका अनुभव लिया और आगे बढ़ चला। अभी भी यात्रा में ही हूं...
वह मंच मिला क्या?
- तलाश जारी है। मिला भी है और नहीं भी। अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। एक कलाकार की बेचैनी अलग प्रकार की होती है। वह उसके कार्य-भाव से बाहर निकलती है। कलाकार तब सबसे ज्यादा उदास होता है, जब उसके पास करने-कहने को कुछ न बचे। इसलिए वह जिंदगी भर मंच तलाशता रहता है, चाहे छोटा कलाकार हो या बड़ा।
समाजशास्त्र में एम.ए. करने के बावजूद आप नाट्यकर्मी बने। कैसा रहा अनुभव?
- समाजशास्त्र कहां नहीं है। नाटक में है, परिवार में है, समाज में तो है ही। इसके अलावा एक बच्चे को बड़ा करते वक्त भी उसमें समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को आप अनदेखा नहीं कर सकते। पालना तो छोड़िए, जन्म से लेकर मृत्यु के दस से तेरह दिनों बाद तक एक व्यक्ति से जुड़े जीवन में समाजशास्त्र होता ही होता है। मेरा समाजशास्त्री होना नाटक विधा में बड़ा काम कर गया। मैं सब कुछ करते हुए भी सब कुछ देख-समझ भी पाता हूं। यह दृष्टि समाजशास्त्र की वजह से ही संभव हो सका। मुझे कलाकार से संवेदनशील कलाकार बनाने में इस शास्त्र का बड़ा हाथ रहा है।
आपको लेकर परिवार का क्या रवैया रहा? अक्सर परिवार ऐसे कार्यों में न के बराबर सहयोग करते हैं।
- मैं इस मामले में खुद को भाग्यशाली मानता हूं। मेरे पिताजी ने बस चंद सवाल पूछे थे। आप जो करने जा रहे हैं, क्या उससे आपका पेट पल जाएगा? आपका भविष्य सुरक्षित है? क्या इसे लेकर आप भविष्य में खुश रहेंगे? तीनों सवालों का एक सम्मिलित उत्तर था, संक्षेप में - हां! बस उन्होंने मुझे खुशी-खुशी आशीर्वाद देकर विदा कर दिया। एक बात और, मेरा परिवार कलाकारों का परिवार है। वे सब कला के महत्व को समझते थे।
आप क्या हैं कलाकार, निर्देशक, संगीतकार, लेखक, अभिनेता या नाट्यकर्मी? खुद को ज्यादा कहां फिट पाते हैं?
- मूल में कलाकार हूं। अलग-अलग विधाओं के लोगों को सामान्य तौर पर कलाकार ही तो बुलाते-पुकारते हैं। जैसे गेहूं की पिसाई हुई तो आटा, मैदा, सूजी आदि अलग-अलग चीजें निकलती हैं। आवश्यकतानुसार लोग उसे अलग-अलग कर लेते हैं। इसी तरह कलाकार भी होते हैं। रही बात मेरी, तो मैं सब कुछ हूं। मैं यह अहम भाव से नहीं बोल रहा हूं। मुझे सारे कार्य करने में खुशी मिलती है। मैं नाट्यधर्म को पूरा करके आनंद लेता हूं। अभिनय से लेकर निर्देशन तक, जो भी कार्य होता है, करता हूं और करना चाहता हूं।
एनएसडी द्वारा आयोजित ‘भारंगम’ का उद्देश्य क्या है?
- भारंगम का आयोजन पिछले चौबीस सालों से हो रहा है। इस बार का भारंगम थोड़ा अलग रहा। होना भी चाहिए था। देश के तेरह शहरों के अलावा श्रीलंका के कोलंबो और नेपाल के काठमांडू में भी आयोजन हुए। एनएसडी के कार्यक्रम का केंद्र दिल्ली जरूर है, लेकिन इस बार हमारा प्रयास था कि हम दूसरे क्षेत्रों में भी पहुंचें। लोग नाटक तो देखते हैं, पर उसके यथार्थ और जादू, दोनों से रूबरू भी हों, इसलिए एनएसडी के पूर्व छात्र राजपाल यादव को इस वर्ष के लिए रंगदूत (महोत्सव-राजदूत) चुना गया। इस महोत्सव ने नाटक, कला और अन्य रचनात्मक क्षेत्रों के लोगों के बीच ज्ञान व विचारों के आदान-प्रदान को सुगम बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।
भारंगम का प्रतीकात्मक चिन्ह (लोगो) ‘एक रंग-श्रेष्ठ रंग’ दिया गया है। इसके पीछे क्या निहितार्थ हैं?
- नाटक अपने आप में एक पूर्ण शब्द है। कहीं भी नाटक का इतिहास लिखा जाता है, नाटकों का इतिहास नहीं। नाटक के रूप अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे रूसी नाटक, इतालवी नाटक, हिंदी नाटक, मुखर नाटक, मौन नाटक, फिजिकली (शारीरिक) नाटक, लोक नाटक, शाब्दिक नाटक आदि। हजारों प्रकार के नाटक मैं गिनवा सकता हूं। पर यह सब मिलकर भी ‘नाटकों’ नहीं, नाटक ही कहलाता है। एक रंग, बिल्कुल सफेद रंग की तरह। सात रंगों के मिश्रण से बना, लेकिन सफेद। जिसकी जैसी जरूरत हो, वह वैसा रंग प्रयोग में ले आए। वैसा रंग, जो श्रेष्ठ के भाव से ओतप्रोत हो। श्रेष्ठ से तात्पर्य कहीं यह मत लगा लीजिए कि अन्य रंगों को मैं कमतर आंक रहा हूं।
नाटक बड़ा है या फिल्म?
- सवाल उचित नहीं है। दोनों का अपना महत्व है। डॉक्टर बड़ा या प्रोफेसर? जिसकी जब जरूरत होगी, उस कालखंड-स्थिति में वही बड़ा होता है। फिल्म में नाटक ही तो दिखाया जाता है। पर्दे पर वह फिल्म हो जाता है और मंच पर नाटक। ये सभी कला के पर्यायवाची शब्द हैं। हूबहू नहीं, थोड़ा अलग रंग-रूप-तेवर लिए। दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व है।
नाट्य कर्मियों का जीवन स्तर फिल्मी सितारों से कमतर होता है, क्यों?
- ये बातें शत-प्रतिशत सत्य नहीं हैं। पर बिल्कुल असत्य भी नहीं हैं। ऐसे दोयम व्यवहार के लिए मीडियाकर्मी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। जैसा कलाकारों को मान चाहिए था, वैसा मिला नहीं। इसे लेकर हाय-तौबा करने की जरूरत नहीं है। किसी को कोसने की जरूरत नहीं है। कई कोस की यात्रा करने की जरूरत है। कलाकार प्यार के भूखे होते हैं, पर पेट के लिए तो अनाज चाहिए। भावना के साथ व्यवहार की भी जरूरत है। बहुत नहीं, तो सम्मानजनक ही सही। वैसे मेरा अनुभव थोड़ा अलग है। उतना तो कलाकार को मिल ही जाता है, जितने के वे असली हकदार होते हैं।
“नाटक न कभी खत्म हुआ है, न होगा। नौटंकी करने वाला इंसान ही तो है। इंसान समाप्त तो नाटक की जरूरत क्या रह जाएगी। इस धरती पर अगर दो इंसान भी रहेंगे तो एक-दूसरे के लिए वे नाटक कर्मी ही होंगे। सब रहेंगे। सबका अपनी जगह महत्व है। थोड़ा फॉर्मेट अलग जरूर रहेगा। रहना भी चाहिए।”
क्या नाटक एक समाप्त होती विधा है?
- है क्या? अगर आपके प्रश्न सही हैं तो फिर ‘भारंगम’ के सारे टिकट कहां गए? कौन हैं वे लोग, जिनकी उपस्थिति से हाल खचाखच भरा हुआ था। टिकट के लिए फिर पैरवी क्यों की गई? नाटक न कभी खत्म हुआ है, न होगा। नौटंकी करने वाला इंसान ही तो है। इंसान समाप्त तो नाटक की जरूरत क्या रह जाएगी। इस धरती पर अगर दो इंसान भी रहेंगे तो एक-दूसरे के लिए वे नाटक कर्मी ही होंगे। फिल्म नाटक को निगल गया, ओटीटी फिल्म को निगल गया। रेडियो लोक कला को, टीवी रेडियो को निगल गया। मोबाइल टीवी को निगल गया। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। सब फालतू बातें हैं। सब रहेंगे। सबका अपनी जगह महत्व है। थोड़ा फॉर्मेट अलग जरूर रहेगा। रहना भी चाहिए। परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
आप स्वयं 1996 में एनएसडी के छात्र थे। 25 साल बाद 6 अक्टूबर 2023 को एनएसडी के डायरेक्टर बने। क्या परिवर्तन हुआ और क्या देखने को मिलने वाला है?
- मैं अभी भी खुद को एनएसडी का बच्चा मानता हूं। एक बच्चा बड़ा होकर परिवार में दूसरे रोल में आ जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह इतना बड़ा हो गया कि माता-पिता उसके सामने छोटे पड़ गए। कुछ ऐसा ही है मेरे साथ। यहां मैं दो उद्देश्यों को ध्यान में रखकर काम कर रहा हूं। पहला यह कि जो इसकी समृद्ध परंपरा रही है, उसे कायम रखा जाए। दूसरा यह कि मैं इस परंपरा में क्या सकारात्मक जोड़ पाता हूं।
यहां एक साल में मात्र 32 छात्रों का नामांकन हो पाता है। क्या वजह है?
- मेरे लिए वे सिर्फ छात्र नहीं हैं, एक शरीर भी होते हैं। बिल्कुल जीवित शरीर, जिसके हर पहलू पर काम किया जाना है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। भीड़ नहीं, कोहिनूर चाहिए। यही ध्यान में रखकर सीटें सीमित रखी गई हैं। न सिर्फ मन, बल्कि उनके तन पर भी इतना काम करना होता है कि शिक्षक और छात्र के बीच में अगर सीधा संवाद न हो, तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। अंग्रेजी में इसे ‘वन टू वन कम्युनिकेशन’ कहते हैं और यह भीड़ में संभव नहीं है।
भारत सरकार की तरफ से क्या सहयोग है?
- एनएसडी पूर्णत: सरकारी संस्था है। जो कुछ भी यहां दिख रहा है, वह सब सरकार की वजह से है। सरकार ने मुझे भी एक जिम्मेदारी सौंपी है। अपनी ओर से जो बन पड़ता है, कर रहा हूं। विवादास्पद नहीं बनना है, पर विवादों से बचता-फिरता भी नहीं हूं। राष्ट्र और कलाकारों के हित में जो भी बन पड़ेगा, जरूर करूंगा। सरकार से अपनी बात कहूंगा, उनकी भी सुनूंगा। जहां जरूरत पड़ी, हस्तक्षेप करूंगा। निदेशक के रूप में और क्या कर सकता हूं, इसके लिए छात्रों से रूबरू भी होता रहता हूं।