अटल आडवाणी के दौर में भाजपा के थिंक टैंक के रूप में मशहूर रहे के. एन. गोविंदाचार्य न केवल आपातकाल के प्रत्यक्षदर्शी हैं बल्कि वे इसके भुक्तभोगी भी रहे हैं। वर्तमान में राजनीति से दूर लेकिन सामाजिक मुद्दों को लेकर लगातार सक्रिय गोविंदाचार्य से आपातकाल को लेकर सौरव राय ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश
जब आपातकाल लगा तो आप आरएसएस के लिए काम कर रहे थे। आंदोलनों में भी शामिल थे। आन्दोलन के
दौरान क्या आपको लग रहा था कि आपातकाल लग सकता है?
दमनात्मक कार्रवाइयां तो बिहार आंदोलन के समय में भी बहुत होती थी। लेकिन आपातकाल घोषित किया
जाएगा इसका अनुमान मुझे शुरू में नहीं था। सामान्यतः 20 जून तक नहीं था। मुझे सही से याद है कि मैं
उस दिन बनारस में था। संघ शिक्षा वर्ग के बाद मैं हर साल जाता था। जब मुझे पता चला कि आपातकाल लग
गया है तो मैं समझ गया कि अगला कदम संघ पर प्रतिबंध लगेगा। इसलिए मुझे तुरंत अपने कार्यक्षेत्र में
आना चाहिए। मैंने शाम को पंजाब मेल पकड़ा। स्टेशन पर उतरते ही मैं संघ कार्यालय नहीं गया। मैंने पहले
एक विद्यार्थी अरुण सिन्हा को भेजा ताकि कार्यालय का हाल चाल मिल सके। उसने बताया कि वहां तो पुलिस
आ गई है। मैं समझ गया कि मेरा अंदाजा ठीक था। बिहार आंदोलन में पुलिस से बचते हुए कैसे काम किया
जाये उसका अनुभव था। मैंने अपने आप को तैयार किया कि फिर मुझे उसी तरह छिपकर काम करना होगा।
आपातकाल घोषित होने के बाद आपने कैसे अपने कार्य को अंजाम दिया?
आपातकाल के दौरान मुझे पता था कि दिल्ली की सरकार पर रूस का प्रभाव सबसे ज्यादा है। इसलिए सबसे
पहले हमने अंडरग्राउंड मूवमेंट की तैयारी शुरू कर दी। हमने यह तय किया की संघ कार्यालय को सबसे पहले
सेनेटाइज किया जाए। वहां ऐसे कोई कागजात न रहें जिससे संघ से जुड़े लोगों को परेशानी आये। मैंने सात
बिंदु में सारी बातें लिखी कि अब हमें आगे क्या-क्या करना है। अरुण सिन्हा आदि स्वयंसेवकों को बुलाया और
उन्हें सारी बातें समझाईं। सबसे पहले गुरु दक्षिणा बैंक अकाउंट से निकाल लिया जाये, गुरु दक्षिणा की सूची
हटा लें, अंडरग्राउंड संपर्क का केंद्र बना लें, अपना अपना नाम बदल लें और क्या नाम जिला प्रचारकों ने रखा
इसकी हमें एक सूची दे दें। 27 जुलाई तक यह सारे काम हो गये। 29 जुलाई को नागपुर से एक स्वयंसेवक
आया जिसे यह सब जानकारी दी गयी। 4 जुलाई को संघ पर प्रतिबंध लगा। उसके पहले आगे के संघर्ष के लिए
हमारी तैयारी पूरी हो गयी थी।
इमरजेंसी के दौरान किस तरह की यातनाओं का सामना लोगों ने किया?
मुझे याद है जवाहर मिश्र मेरे साथी थे। थाने में उसके ऊपर कुत्ता छोड़ा गया। कुत्तों ने उसे काट खाया। लेकिन
उसके बावजूद उसने संघ के लोगों की कोई जानकारी नहीं दी। स्वयंसेवकों को बंदा बैरागी का उदाहरण मालूम
था। इस तरह से बरेली में वीरेंद्र अटल के नाखून उखाड़ दिए गए। इलाहाबाद के रघुवंशी पर आरोप लगाया गया
कि वह रेलवे लाइन उखाड़ रहे थे। तपेश्वर गांधी पर आरोप लगा कि वह नौबतपुर में रेलवे लाइन उखाड़ रहे थे।
मजिस्ट्रेट के सामने उनकी पेशी हुई। उन्होंने कहा कि कितना अच्छा होता कि अगर हम रेलवे लाइन उखाड़ रहे
होते बशर्ते नौबतपुर में रेलवे लाइन तो हो। एक स्वयंसेवक बेचारा गूंगा था उसपर आरोप लगा कि यह इंदिरा
विरोधी नारे लगा रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के ओमप्रकाश कोहली जी को गिरफ्तार किया गया। आरोप था
कि 185 अध्यापकों को जिनको कार्यक्रमों में बुलाने की सोच रहे थे। वह सूची मिल गई और पुलिस ने
गिरफ्तार कर उनके पोलियो ग्रस्त पैर पर लाठियां बरसाई। ऐसे किस्सों से इमरजेंसी भरा पड़ा है।
मीसा एक्ट कितना भयावह था?
मीसा एक्ट के अंतर्गत पकड़ लिया जाता था तो अगले 6 महीने तक कोई सुनवाई ही नहीं होती थी। इस एक्ट
से जान माल से लेकर मूलभूत अधिकार पर ही सबसे बड़ा सवाल खड़ा हो गया था। उस वक्त एक जज ने कह
दिया था कि भारत इंग्लैंड के ट्रेडीशन से चलता हैं। वहां किंग को डिवाइन राइट होते हैं। भारत में डेमोक्रेटिक
तरीके से किंग सिलेक्ट होता है। इंदिरा गांधी अभी भारत की किंग हैं। इसलिए प्रजा के प्राण का अधिकार भी
उनका है।
मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि देश में अघोषित आपातकाल है। क्या यह बात न्याय संगत है?
उस वक्त को उन्हें याद करना चाहिए। अखबार में इतना सेंसरशिप था कि छपने जाने से पहले सरकारी
अधिकारी को अखबार दिखाना होता था। दूरदर्शन का नाम ही इंदिरा दर्शन पड़ गया था। बाकी छोटे-छोटे
अखबार हम लोग निकालते थे उस पर रेड होता था। साइक्लोस्टाइल मशीन से हम सब मिलकर छोटे बुलेटिन
निकालते थे। वह मशीन भी कुछ दिनों में जब्त कर ली जाती थी। कार्यकर्ता जेल में डाल दिया जाता था। क्या
आज भी ऐसी स्थिति है?
जर्मनी में होलोकास्ट को याद रखने के लिए संग्रहालय बनाए गए हैं क्या भारत सरकार को भी कुछ ऐसा कदम
उठाना चाहिए? ताकि भविष्य में ऐसा कृत्य कोई सरकार न करे?
बिल्कुल, मेरा मानना है कि भारत सरकार को ऐसा कदम उठाना चाहिए। कम से कम बिहार आंदोलन से लेकर
नवनिर्माण आंदोलन तक के जितने पब्लिकेशन है उन सबको आर्काइव्स के नाते इकट्ठा करके एक जगह
रखना चाहिए। ताकि भविष्य में कोई रिसर्चर रिसर्च करना चाहे तो उसे कम से कम सारी सामग्री तो उपलब्ध
हो जाये। इसे राष्ट्र के सामने लाने की जरूरत है राष्ट्र के लोगों को बताने की जरूरत है ताकि भविष्य में इस
तरह के कृत्य ना हो।
कई लोग मानते हैं कि आने वाले समय में कोई सरकार इमरजेंसी लगा सकती है। अर्थात इमरजेंसी का खतरा
कभी भी हो सकता है। आपकी इसपर क्या राय है?
मैंने कुछ बयान सुने और वो भी उनसे जो कि आपातकाल के समय संघर्ष में थे। वे यह कहने से नहीं चूके कि
देश में लिमिटेड इमरजेंसी की बहुत जरूरत है। यह सुनकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि जिन्होंने आपातकाल को
भुगता है वे आज इस तरह की बात कैसे कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई और 1977
के चुनाव ने भारत के जनमानस में यह बात तो भर दिया है कि शांतिपूर्ण आंदोलन के द्वारा भी तानाशाही
सत्ता को हटाया जा सकता है। इसलिए मुझे लगता नहीं कि भविष्य में इस तरह की कोई गलती करेगा।
एक डिबेट है कि इमरजेंसी उस वक्त गैर जरूरी थी। ऐसा भी कुछ देश में नहीं हो रहा था कि उन्हें इमरजेंसी
लगाना चाहिए था आपका इस पर क्या मत है?
कई किताबों और लेखों से यह पता चलता है कि दरसल उनके कुछ साथी थे जिन्होंने आतंकित कर दिया इंदिरा
गांधी को और इंदिरा जी को भी शायद ऐसा लगा की स्थिरता के लिए उनकी सत्ता को चुनौती न दी जाए
पार्लियामेंट में उसके लिए इमरजेंसी लगाकर सबको बंद करो। 6 महीने बाद जब सब लोग ठंडा हो जाएगा तो
फिर चुनाव करा कर के सत्ता में आ जाएंगे। लेकिन जब उन्हें ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तो उन्होंने फिर
दूसरी गलतफहमी यह पाल ली की चुनाव कराएंगे तो चुनाव में जीत करके फिर से इसे वैधता मिल जाएगी।
उनका फिर अंदाजा गलत निकला और वह बुरी तरह हारी। देश में आंदोलन होते रहे हैं इसके लिए इमरजेंसी
लगाना उचित नहीं था।
इमरजेंसी का यह 50 वां साल चल रहा है आप नई पीढ़ी को क्या कहना चाहेंगे ?
मै बस यही कहूँगा निर्भय रहो इसलिए क्योंकि जागृत रहना है। जागृत रहना स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बचाने
की गारंटी है। जनता ही सब कुछ है तो जन की समझ जन की चेतना जन की हिस्सेदारी इन सभी मूल्यों को
बढ़ाने की जरूरत है।