निरंतरता में मोदी युग

युगवार्ता    14-Jun-2024   
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चुनाव परिणाम ने राहुल गांधी की उस कुटिल चाल को विफल कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निरंतरता में तीसरी बार मतदाताओं ने चुना है। यह उस दुष्‍प्रचार के बावजूद हुआ है। इसका एक अर्थ तो बहुत साफ है कि जनता नरेंद्र मोदी के कहे पर भरोसा करती है। इसलिए करती है क्योंकि वे जो कहते हैं, वही करते हैं।
तीसरी बार प्रधानमंत्री की शपथ लेते नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जानते हैं कि जन-मन में आज अगर कोई आशंका है, तो वह क्या है? उसका ही उत्तर है, पूरे मंत्रिमंडल का गठन। इसे दो ढंग से देखना चाहिए। पहला है, मंत्रिमंडल की संख्या। वह 71 है। यह अधिकतम संख्या नहीं है, बल्कि संविधान में निर्धारित अधिकतम संख्या से दस कम है। दो, शपथ ग्रहण से पहले भावी मंत्रियों को नरेंद्र मोदी ने कुछ सीख दी। वह यह कि वे एक मंत्री के रूप में किस तरह विनम्र भाव से कार्य करें और सबके लिए सुलभ हों। इससे पहले सांसदों को वे यह बता चुके थे कि मैं हर समय उपलब्ध हूं। क्या इसके बावजूद कोई आशंका बनी रह सकती है? स्वस्थचित्त है, भारत का समाज। इसलिए इसका तो सवाल ही नहीं उठता।
स्पष्‍ट है कि चुनाव अभियान से पहले जो-जो आशंकाएं जो-जो उठा रहे थे, वे उन-उन लोगों का अपने-अपने मन का भ्रम था। उसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं था। यहां यह जरूरी नहीं है कि उन बातों का ब्योरा दिया जाए। इस समय यह समझना जरूरी है कि वे ही लोग पैंतरा बदल कर क्या-क्या बातें अब बोल रहे हैं। उनमें सबसे खास यह है कि वे लोगों को भ्रमित करने की अपनी भूल को सुधारने के बजाए दोहराते जा रहे हैं। वैसे तो यह उनकी फितरत है। लेकिन अब वे क्या कह रहे हैं? यह समझना महत्वपूर्ण है कि उनके तर्क कितने हास्यास्पद हैं। इसलिए एक तर्क का उल्लेख यहां जरूरी है। वह यह है कि नरेंद्र मोदी को जनादेश नहीं मिला है। उन्हें नैतिक स्तर पर अपनी पराजय स्वीकार कर इस्तीफा दे देना चाहिए।
इस तर्क का आधार क्या है? यही वह पेंच है, जो एक बहुत साधारण समझ के व्यक्ति के लिए भी समझना सरल है। पहले उस पेंच को जानें। उसी में वह तर्क भी है। एक अंग्रेजी अखबार ने इसे अपने शीर्षक में शब्द दिया, ‘भाजपा के पास संख्या है, जनादेश नहीं।’ यह एक ऐसे जाने-पहचाने नाम के लिखे का शीर्षक है, जिन्हें कई रूपों में जाना जाता है। सुनते हैं कि वे आजकल कांग्रेस के सलाहकार भी हैं। यह बात सच हो सकती है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बोल भी इसी स्वर में है। जो भी हो, चाहे कांग्रेस अध्यक्ष हों, चाहे कोई लेखक हो, चाहे कोई राजनीतिक नेता हो, चाहे कोई राजनीतिक विश्‍लेषक हो, अगर वह यह कहता है कि भाजपा के पास संख्या है, जनादेश नहीं है, तो वह यह भूल जाता है कि इस चुनाव में भाजपा अकेले नहीं लड़ी थी। इसी चुनाव में क्या, पिछले कई चुनावों से भाजपा के नेतृत्व में राजग गठबंधन चुनाव में उतरता रहा है। इस बार भी यही था। क्या यह एक तथ्य नहीं है?
क्या इस तथ्य की कोई ईमानदार विश्‍लेषक अनदेखी कर सकता है? वही कर सकता है जो पक्षपाती हो, पराजित हो और अपनी पराजय की वेदना से सूझबूझ खो बैठा हो। नहीं तो, वह यह स्वीकार करेगा कि इस सदी के चार साल पहले ही राजग जो अस्तित्व में आया वह बना हुआ है। उसकी यात्रा में आरोह-अवरोह अवश्‍य आए और वे आते रहेंगे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग बना था। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 और 2019 में स्पष्‍ट बहुमत प्राप्त हुआ था। लेकिन सरकार भाजपा की नहीं, राजग की थी। 2024 के चुनाव में भाजपा के नेतृत्व में राजग का विस्तार हुआ। उसमें सबसे महत्वपूर्ण दो घटक पुनः राजग में आए। वे हैं, जदयू और तेदेपा। जदयू के नेता नीतीश कुमार ने उस समय भी कहा और पुनः राजग के संसदीय दल की सभा में भी कहा कि अब उनका दल राजग में ही रहेगा। इसी तरह तेलगू देशम के नेता चंद्रबाबू नायडू ने पूरी दुनिया को उसी सभा के जरिए बताया कि आंध्रप्रदेश में उनकी पार्टी को जो बड़ी विजय मिली है वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं से बने वातावरण का परिणाम है।
यही कारण है कि चुनाव परिणाम के बाद यह बिल्कुल स्पष्‍ट था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग की सरकार तीसरी बार बनने जा रही है। राजग में भ्रम नहीं था। भ्रम पैदा करने की राजनीतिक चाल जरूर चली जा रही थी। जिसका कोई न परिणाम होना था, न हुआ। जो लोग नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं, क्या उनमें कोई राजनीतिक नैतिकता है? यह प्रश्‍न पूछने का यही सही समय है। चुनाव अभियान लंबा चला। तीन महीने चला। इन अभियानों में कांग्रेस ने एक निराधार भ्रम फैलाया। यह बात अलग है कि उसका चुनाव परिणाम पर वैसा दुष्‍प्रभाव नहीं पड़ा जैसा कि कांग्रेस चाहती थी। जनादेश ने कांग्रेस के दुष्‍प्रचार को नकार दिया है। वह दुष्‍प्रचार क्या था? इसे पुनः याद किया जाना चाहिए। उसे भुला देने से देश और संविधान को भारी क्षति पहुंचेगी।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की एक तस्वीर उन सबको याद होगी जिन्होंने मीडिया के किसी भी माध्यम पर चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें देखा है। वे अपने हाथ में एक डायरी नुमा संविधान लहराते हुए पाए जाते थे। यह प्रश्‍न नहीं है कि वे संविधान को कितना जानते हैं। यह प्रश्‍न भी नहीं है कि वे पंडित जवाहरलाल नेहरू के संविधान सभा में दिए गए अनेक भाषणों को उन्होंने पढ़ा है या नहीं। अगर उन्होंने पढ़ा होता तो ऐसी भयंकर नासमझी उनके जुबान से नहीं निकलती, जो इस चुनाव में निकली। यह प्रश्‍न भी नहीं है कि वे जो कह रहे थे वह उनकी सूझ थी। यह प्रश्‍न भी नहीं है कि वे ऐसी नासमझी राजनीतिक मकसद से कर रहे थे। यह प्रश्‍न भी नहीं है कि उनके बोल किससे चुराए गए। प्रश्‍न यह है कि वे किस आधार पर बोल रहे थे कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग जीत गया, तो संविधान नहीं बचेगा और इस तरह लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। भारत की दो संपदा पर दुनिया को ईर्ष्‍या है, भारत का संविधान और उससे उत्पन्न वह लोकतंत्र, जो दुनिया के लोकतंत्र की गंगोत्री है। राहुल गांधी भारत की इस मूल पूंजी को चुनाव में किसे बंधक पर रखने की जुगत में थे? यह बड़ा प्रश्‍न है।
“इस चुनाव में सोशल मीडिया और युट्यूबर्स का बड़ा दखल रहा। यह जांच का विषय है कि क्या इनके माध्यम से विदेशी धन लगाकर मतदाताओं को भ्रमित करने के कांग्रेसी प्रयास को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर लोगों तक पहुंचाया गया। यह एक ऐसी आशंका है, जो एक जांच आयोग की मांग करती है।”
चुनाव परिणाम ने राहुल गांधी की उस कुटिल चाल को विफल कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निरंतरता में तीसरी बार मतदाताओं ने चुना है। यह उस दुष्‍प्रचार के बावजूद हुआ है। इसका एक अर्थ तो बहुत साफ है कि जनता नरेंद्र मोदी के कहे पर भरोसा करती है। इसलिए करती है क्योंकि वे जो कहते हैं, वही करते हैं। जो लोग नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं, वे अपने गिरेबान में झांके। अपनी खुद जांच करें। अगर थोड़ी सी भी जांच करते हैं, तो वे पाएंगे कि उन्हें देशवासियों से क्षमा मांगनी चाहिए। क्षमा मांग कर वे अपने पाप के बावजूद पापी होने से बच जाएंगे। लोकतंत्र में पाप है क्या? वह कार्य पाप है, जो लोकतंत्र को इरादतन दूषित करने के लिए किया जाता है। गलत इरादे से जब भ्रम फैलाया जाता है। जिसमें इरादा राजनीतिक लाभ का रहता है।
अगर कांग्रेस माफी नहीं मांगती, तो क्या किया जाना चाहिए? यह विचार का विषय है। 18वीं लोकसभा के चुनाव में जितना दुष्‍प्रचार हुआ है, उतना संभवतः किसी पहले के चुनाव में नहीं हुआ है। हिंसा, धनबल, आरोप-प्रत्यारोप आदि बातें पहले भी होती रही हैं। जब भी चुनाव होगा, तब ये बातें होंगी। इसीलिए समय-समय पर चुनाव सुधार के प्रयास होते रहे हैं। उसके लिए अनेक संगठन हैं, जो आवाज उठाते हैं और यह काम करना वे अपना फर्ज समझते हैं। इसमें अब निर्वाचन आयोग भी शामिल हो गया है। चुनाव परिणाम के एक दिन पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने जो बातें उठाई हैं, वे अत्यंत गंभीर हैं। यह तो सभी जानते हैं कि इस चुनाव में सोशल मीडिया और युट्यूबर्स का बड़ा दखल रहा। यह जांच का विषय है कि क्या इनके माध्यम से विदेशी धन लगाकर मतदाताओं को भ्रमित करने के कांग्रेसी प्रयास को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर लोगों तक पहुंचाया गया। यह एक ऐसी आशंका है, जो एक जांच आयोग की मांग करती है। जांच आयोग के लिए एक कानून है। अगर जांच आयोग बनता है, तो उसे वह अधिकार प्राप्त होना चाहिए, जो जांच आयोग कानून के अनुसार आयोग को मिलता है। यह वास्तव में सच खोजी जांच आयोग होगा।
इस गहरे संदेह का निवारण होना चाहिए। इससे भारत की लोकतांत्रिक परंपरा में एक नया आयाम जुड़ेगा। लोकतंत्र को साफ-सुथरा बनाने में मदद मिलेगी। जहां तक इस आशंका का सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग गठबंधन की सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, तो इसका समाधान सरल है। ऐसी आशंका निराधार है। अतीत इसका साक्षी है। गुजरात में जब नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री पद संभाला था, तब भाजपा कई सालों से अस्थिर सरकार के झंझावातों में फंसी हुई थी। उन्होंने एक स्थिर सरकार की जो नींव डाली और जिस पर स्थिर सरकार की ईमारत बनी, वह आज भी अपनी बुलंदी पर है। इसी तरह लोग नरेंद्र मोदी को अब पंडित जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष बताने लगे हैं। यह तुलना अनुचित है। पंडित नेहरू का समय अलग था। परिस्थितियां भिन्न थी। उन्हें एक पार्टी की सरकार चलाने की सुविधा इतिहास ने दी थी। उसे भी वे उस तरह नहीं चला पाए, जैसा लोग चाहते थे। नरेंद्र मोदी के प्रति भारत में एक आकांक्षा पैदा हुई। वह भरोसे में बदली। उसका विस्तार हुआ है। वही निरंतरता नए मंत्रिमंडल में दिख रही है। जिसमें भारत की विविधता है, परंतु वह राजनीतिक रूप से एकता के धागे में बंधी हुई है। इस निरंतरता में भारतीयता है और वही मोदी युग का पुनः प्रयाण है।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।