अंबेडकर किसके हैं? प्रधानमंत्री मोदी उन्हें ‘सबके अंबेडकर’ बताते हैं। दलित इसे अपनी थाती मानते हैं और अस्मितावादी अपनी थाती। आइए जानते हैं कि अंबेडकर किसके हैं और उनका असली वारिस कौन हैं?
बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम लेते ही, मन में एक ‘संविधान निर्माता’ की तस्वीर उभरती है। भारत के इतिहास में डॉ. भीमराव अंबेडकर और ‘संविधान’ एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं, जबकि हकीकत इसके विपरीत है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय राजनीति और समाज में उनका योगदान सिर्फ संविधान बनाने तक सीमित नहीं है। वहीं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘सबके अंबेडकर’ कहते हैं, तो अपने आप ही नई बहस छिड़ जाती है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ‘सबके अंबेडकर’ के क्या मायने और मतलब है?
देश में इस समय दो तरह के लोग हैं, जो अंबेडकर पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं। एक राजनीतिक व दूसरे बुद्धिजीवी। राजनीतिक दलों के लिए ‘बाबा’ का मतलब दलित वोट बैंक है, वहीं बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ‘बाबा’ का मतलब दलित अस्मिता की बात है। लेकिन दोनों वर्गों में से किसी के भी एजेंडे में अंबेडकर की सोच, दृष्टि व विचाराधारा को अपनाना व उस पर अमल करना शामिल नहीं है।
अभी देश में आम चुनाव हो रहा है। इसलिए पहले यह देखते हैं कि अंबेडकर के नाम पर कैसी राजनीति हो रही है। बाबा कांग्रेस में रहे। इसलिए कांग्रेस ने सबसे ज्यादा उनपर अपना अधिकार जमाया। कांग्रेस को इसका लाभ भी मिला। दलित वोटों के सहारे कांग्रेस ने देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज किया। लेकिन कांग्रेस की राजनीति में कहीं भी बाबा साहब की सोच, दृष्टि और विचारधारा नहीं दिखती। कांग्रेस ने दलितों को कल्याण योजनाओं तक सीमित कर दिया। कांग्रेस सिर्फ गरीबी हटाने की बात करती रही लेकिन लेकिन कांग्रेस राज में कितनी गरीबी हटी यह शोध की मांग करता है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी नेहरू-गांधी परिवार तक सिमट गई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उभरे राष्ट्रीय नेता धीरे-धीरे कांग्रेस की राजनीति से गायब हो गए। ऐसे में कांग्रेस के प्रति दलितों का भ्रम टूटा। धीरे-धीरे दलित कांग्रेस पार्टी से दूर होते गए। राजनीति में उपजे इस खालीपन को भरने के लिए सभी दल कोशिश करने लगे। लेकिन इसमें सफलता पाई कांशीराम ने। उन्होंने नब्बे के दशक में बाबा साहेब की सोच और विचारधारा को केंद्र में रखकर दलित चेतना को जगाया। दलितों को सीधे सत्ता में आने का विश्वास दिया और उन्हें एकजुट किया। बहुजन समाज पार्टी का उभार और उसका सत्ता में आना इसी का प्रतिफल था। लेकिन कांशीराम की राजनीतिक उत्तराधिकारी मायावती उनकी तरह समझदार नहीं निकलीं। इसलिए मायावती की सियासी समझ अंबेडकर के विचार ‘दलित उत्थान’ से हटकर ‘दलित अस्मिता’ पर टिक गई। सत्ता का मौका मिलने के बावजूद मायावती अंबेडकर के सपनों को साकार नहीं कर सकीं। सत्ता के लिए बहुजन से सर्वजन की ओर जाने से बसपा से दलितों का विश्वास टूटा। दलितों का भरोसा धीरे-धीरे बसपा खोने लगी। दलितों के लिए बसपा एक विकल्प थी। लेकिन बसपा एक राष्ट्रीय दल होने के बावजूद मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहीं। उत्तर प्रदेश के बाहर के दलितों के सामने आज भी यह एक राजनीतिक यक्ष प्रश्न है। इस बाबत बहुजन में आज भी एक छटपटाहट है।
यही वजह है कि आज सभी राजनीतिक दलों में ‘दलित वोट बैंक’ में सेंध लगाने की होड़ मची है। भाजपा, कांग्रेस, वाम दल सहित कथित समाजवादी दलों को ‘अंबेडकर’ में अपना सुनहरा भविष्य दिखता है। वहीं अरविंद केजरीवाल अंबेडकर जयंती मनाने की घोषणा करते हैं। साथ ही अपनी कुर्सी के पीछे भी बाबा साहब को जगह देते हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेता भी अंबेडकर को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। वहीं मायावती अंबेडकर को बहुजन का थाती मानती हैं। अंबेडकर के प्रति इन राजनीतिक दलों का प्रेम देखकर कहा जा सकता है कि ‘राजनीतिक दलों का अंबेडकर के प्रति यह दिखावे का प्रेम’ है। पर सच कुछ और ही है। इनमें से सभी राजनीतिक दलों को सत्ता में रहने का मौका मिला है। अभी भी इनमें से कई दलों की सरकार अलग-अलग राज्यों में हैं। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने अंबेडकर के सामाजिक-आर्थिक विचारों पर अमल नहीं किया। किसी ने बाबा के सपनों को साकार करने की कोशिश तक नहीं की है। ऐसा नहीं है कि इन दलों के राजनीतिक नेताओं को नहीं पता है कि अंबेडकर समाज और देश में किस तरह का बदलाव चाहते थे। ऐसे में इन राजनीतिक दलों के नेताओं की अंबेडकर चर्चा वोट बैंक की राजनीति ही लगती है। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे अलग दिखते हैं। जबसे वे प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे वो बार-बार ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे दलित बस्तियों में जाकर दलितों के उत्थान की बात कर रहे हैं। साथ ही अंबेडकर के लिए ‘सबके अंबेडकर’ जैसे संबोधन कर प्रधानमंत्री मोदी अंबेडकर को दलित अस्मिता के खोल से बाहर लाने की कोशिश करते दिखते हैं।
अब बात बुद्धिजीवी वर्ग की करते हैं। इस वर्ग में एक ऐसी फौज है जो अंबेडकर को दलितों का मसीहा मानते हैं। और अंबेडकर के नाम पर हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करते हैं। दूसरी तरफ साहित्य और लेखन के क्षेत्र में दलित साहित्य और दलित चिंतन के नाम पर अलग-अलग धारा विकसित हुई। दलित सहित्य में ‘हम’(दलित) और ‘वो’ (सवर्ण) के नाम पर ऐसी लकीर खींची गई जो समाज में खाई के रूप में तब्दील हो गई है। दलित साहित्य और दलित चिंतन में जिस तरह की गंभीरता की जरूरत थी, वह कहीं गायब हो गई। दलित साहित्य के नाम दलित लेखकों का सतही रुदन ही देखने और पढ़ने को मिला। वहीं सोशल मीडिया ने दलित चिंतन और अस्मिता के नाम पर ‘हम’(दलित) और ‘वो’ (सवर्ण) के बीच ऐसी सामाजिक वैमनष्यता पैदा की गई जो धीरे-धीरे बढ़ती गई। जबकि डॉ. अंबेडकर के समस्त लेखन और चिंतन में कहीं भी ‘हम’(दलित) और ‘वो’ (सवर्ण) की चर्चा तक नहीं है, समाज में कहीं भी किसी प्रकार की सामाजिक वैमनष्यता पैदा करने का कोई भाव नहीं है। उनकी सारी लड़ाई ‘भेदभाव’ के खिलाफ थी और इस क्रम में वे भेदभाव की नई दीवार नहीं बनाना चाहते थे।
एक दौर था जब कांशीराम ने समाज में दलित चेतना जगाना शुरू किया लेकिन कभी भी समाज में हम और वो की लकीर नहीं खींची। उनकी सारी कोशिश दलितों को एकजुट करने को लेकर था। लेकिन हाल के वर्षों में अंबेडकर व कांशीराम के नाम पर कुछेक दलित लेखकों और तथाकथित चिंतकों ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए समस्त दलित चिंतन को ही ‘भ्रमित’ कर दिया है। दलितों के समस्त शोषण व पीड़ा के लिए आज के सवर्ण जाति को ‘शत्रु’ के रूप में स्थापित कर दिया है। ऐसे में आज आम दलितों को यह तथाकथित भ्रम ही सच लगने लगा है। वस्तुत: सिर्फ दलितों का ही नहीं बल्कि समस्त हिंदू जाति का वास्तविक शत्रु जातिवाद और कर्मकांड है। ऐसे में दलितों का यह बुद्धिजीवी वर्ग समाज में भ्रम फैलाकर दलितों का ही नुकसान कर रहे हैं। बाबा साहेब हमेशा जातिवाद और कर्मकांड के खिलाफ संघर्ष करते रहे। इतना ही नहीं उन्होंने ‘जाति का विनाश’ नामक पुस्तक भी लिखी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग भी अंबेडकर के चिंतन के नाम बहुजन (दलितों के एक बड़े वर्ग) को गुमराह कर रही है।
“अंबेडकर के विचारों को मानने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों के नेता अंबेडकर की बात तो करते हैं, लेकिन उनके चिंतन और विचारों पर चलने का हिम्मत नहीं दिखा पाते हैं। इस समय सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही ऐसे राजनीतिक नेता हैं जो वोट बैंक से ऊपर उठकर ‘सबके अंबेडकर’ का सपना साकार करना चाहते हैं। और अंबेडकर के चिंतन और विचारों पर आगे बढ़ने का साहस दिखा रहे हैं। ऐसे में वे ही अंबेडकर के सच्चे वैचारिक वारिस हो सकते हैं। ”
अब बात अंबेडकर के चिंतन धारा की करते हैं। डॉ. अंबेडकर एक सुलझे हुए अर्थशास्त्री थे। उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि के लिए रूपये के विनिमय दरों की समस्याओं पर शोध किया था। ‘द प्रॉब्लेम ऑफ द रुपी’ (1923) नामक शोध में उन्होंने ब्रिटीश काल में भारतीय रुपये के उतार-चढ़ाव पर गहन अध्ययन किया था। इतना ही नहीं उन्होंने कार्ल मार्क्स के साम्यवाद काभी गहराई से अध्ययन किया था। लेकिन साम्यवाद को वो भारत के लिए ठीक नहीं मानते थे। सामाजिक विषमता को लेकर उनकी पीड़ा दोहरी थी। पहला, वे भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद से आहत थे और इसे खत्म करना चाहते थे। दूसरा, जन्मना जातिवाद में व्याप्त दरिद्रता के दंश से वे दुखी थे और इसे समाप्त करने के लिए एक आर्थिक मॉडल बनाना चाहते थे। समाज से जातिवाद खत्म करने के लिए उन्होंने महात्मा गांधी के साथ काम भी किया, लेकिन गांधी जी वर्णव्यवस्था तक आते-आते रूक जाते थे। इसलिए जातिवाद पर डॉ. अंबेडकर महात्मा गांधी से अलग विचार रखने लगे। उनका मानना था कि शिक्षा, अंतरजातीय विवाह और अंतरजातीय भोजन आदि के जरिये समाज से जातिवाद को समाप्त किया जा सकता है। अध्ययन के दौरान उन्हें जातिवाद का हल भगवान बुद्ध के धम्म विचारों में दिखाई दिया। बौद्ध धर्म की समानता और भाईचारे का संदेश उन्हें बहुत प्रभावित किया। इसलिए उन्होंने खुद बौद्ध धर्म अपना लिया। वे शिक्षा को मुक्ति का मार्ग मानते थे। और वे समाज में स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे। इसलिए उन्होंने महिला शिक्षा के क्षेत्र में काम किया। वे देश में राज्य सरकार के जरिये संचालित सामाजिक लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहते थे। इस व्यवस्था में राज्य सरकार के संरक्षण में संपत्ति का सृजन और लोगों के लिए स्थायी रोजगार की संकल्पना है। बाब साहब के इस आर्थिक मॉडल की खास बात यह है कि वे हर परिवार के लिए स्थायी रोजगार की व्यवस्था चाहते थे। उनका मानना था कि इस मॉडल के लागू होते ही कुछ समय बाद लोगों को किसी भी प्रकार की सब्सिडी की जरूरत नहीं पड़ेगी। साथ ही सरकार को भविष्य में कोई कल्याण योजना चलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होंगे और अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ेगी। और सरकार का ध्यान इंफ्रास्ट्रक्चर पर केंद्रित होगा। उन्होंने किसानों के लिए भी राज्य संचालित को-ऑपरेटिव कृषि मॉडल अपनाने पर जोर दिया। लेकिन अंबेडकर के विचारों को मानने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों के नेता अंबेडकर की बात तो करते हैं, लेकिन उनके चिंतन और विचारों पर चलने का हिम्मत नहीं दिखा पाते हैं। इस समय सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही ऐसे राजनीतिक नेता हैं जो वोट बैंक से ऊपर उठकर ‘सबके अंबेडकर’ का सपना साकार करना चाहते हैं। और अंबेडकर के चिंतन और विचारों पर आगे बढ़ने का साहस दिखा रहे हैं। ऐसे में वे ही अंबेडकर के सच्चे वैचारिक वारिस हो सकते हैं।