विश्व हिन्दू परिषद के केंद्रीय सचिव रहे पुरुषोत्तम नारायण सिंह संगठन के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर से जुड़ी विभिन्न यात्राओं और उनके सफल संचालन में उनकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जनजागरण और हिंदू जनमानस को प्रेरित करते रहने की कला में प्रवीण 90 बसंत पार कर चुके श्री सिंह को श्रीराम मंदिर का ताला खुलवाने की रणनीति बनाने वालों में से एक माना जाता है। इनसे हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य उप संपादक डॉ. आमोदकांत मिश्र ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश-
श्रीराम जन्मभूमि से जुड़े आंदोलन की पृष्ठभूमि कैसे तैयार हुई?
1948 में 8 अक्टूबर को पहली बार श्रीराम मंदिर का ताला खुलवाने के लिए सरयू तट के किनारे राम की पैडी पर 'संकल्प कार्यक्रम' हुआ। हम कह सकते हैं कि यहीं से श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति से जुड़े आंदोलनों की नींव पड़ने लगी। कालांतर में ताला खुला। कारसेवा हुई। फिर, मंदिर निर्माण का आंदोलन भी। अब मंदिर निर्माण पूरा होते देख रहा हूं।
संकल्प कार्यक्रम में बाधाएं तो आई होंगी?
हां, लेकिन क्षणिक रहीं। हम संकल्पित भाव से कार्य कर रहे थे। यह श्रीराम मंदिर (तत्कालीन विवादित ढांचा) का ताला खुलवाने को लेकर होने वाला 'संकल्प कार्यक्रम' था और सभी ‘संकल्पित भाव’ से वहां पहुंचे थे। सरयू के किनारे इकट्ठा हुए रेत पर ही मंच बना और कार्यक्रम पूरा हुआ।
रेत पर मंच तैयार करना तो बहुत चुनौतीपूर्ण रहा होगा?
हां, सरयू नदी की रेत पर मंच बनाना मुश्किल था। फिर भी मंच बना। लगभग 100 लोगों के बैठने के लिए। न तो प्रशासन तैयार था और न ही टेंट वाला। हमने टेंट वाले को तैयार किया। किसी भी अनहोनी की जिम्मेदारी हमारी बताई। फिर, जब जिला प्रशासन ने आपत्ति जताई तो टेंट वाले ने उन्हें ऐसा ही कहा। इस दौरान तत्कालीन एसएसपी कर्मवीर सिंह खुद भी तैयारी को देखने आये। वहां, सारी जिम्मेदारी मैने खुद ओढ़ ली। मौन स्वीकृति मिल गयी। फिर, बालू पर 8 फुट ऊंचा मंच बन गया। 'संकल्पित मन' से 'संकल्प कार्यक्रम' सफल हुआ। सरयू का जल सबने अपने हाथों में लिया और श्रीराम मंदिर का ताला खुलवाने का संकल्प पूरा हुआ।
फिर, यहां कोई आंदोलन तो हुआ नहीं?
संकल्प कार्यक्रम के बाद अचानक जनजागरण का विचार आया। यह दैवीय प्रेरणा थी। बिना किसी पूर्व तैयारी के ही जनजागरण यात्रा निकली। बहुत जन समर्थन मिला। शुरूआत सीतामढ़ी (जनकपुरी) से हुई। यह राम जानकी रथ बहुत ही आकर्षक था। अनायास ही लोग आकर्षित होते रहे। दैवीय प्रेरणा से ही यह रथ भी बढ़ चला। हजारों साधु संतों और संन्यासियों का साथ मिला। लोगों का हुजूम आने लगा। फिर, इसकी सुरक्षा को लेकर चिंता हुई। यह भय सताने लगा कि रथ पर कहीं ईट-पत्थर न चल जाएं। वजह, रथ को अनेक स्थानों पर मुस्लिम आबादी के बीच से गुजरना था। रथ यात्रा की सुरक्षा में कुछ हुआ क्या?
इसकी रक्षा के लिए हमने युवाओं की टीम तैयार की। 'राम जानकी रथ सुरक्षा समिति' बनी। लेकिन रक्षा करने वाले युवाओं के दल को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता रहा। कोई 'राम दल' कहता था तो कोई 'बजरंग दल' और कोई इसे 'वीर वाहिनी' कहता रहा। बाद में इसे 'बजरंग दल' के नाम से गठित कर दिया गया। युवाओं को नियंत्रित कर रहे विनय कटियार को इसका दायित्व सौंप दिया गया। इन्हीं नौजवानों के घेरे में राम जानकी रथ चलता रहा। सभी यह जानने लगे कि 'बजरंग दल' के घेरे में साधु-संतों की टोली के साथ 'राम जानकी रथ' आ रहा है।
राम जानकी रथ का पड़ाव कितने स्थानों पर रहा?
देखिये यह यात्रा, बिना योजना के चल रही थी। बिल्कुल दैवीय प्रेरणा से। हां, एक बात जरूर बताना चाहूंगा कि 31 अक्टूबर को गाजियाबाद पहुंचते-पहुंचते इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और यात्रा को रोक दी गयी। फिर, बाद के दिनों में योजना पूर्वक इसको देश के कोने-कोने में भेजा गया। क्षेत्रश: टोलियो के माध्यम से। चित्रकूट, अयोध्या, प्रयागराज समेत देश के हर क्षेत्र में जनजागरण चला। लोगों में इस बावत जागृति भी आई। इस यात्रा में एक ही नारा लगता था, 'आगे बढ़ो, जोर से बोलो, रामजन्मभूमि का ताला खोलो।'
मंदिर निर्माण देखते हुए कैसा लग रहा है। संकल्प मन का संकल्पित भाव अब क्या महसूस कर रहा है?
यह किसी एक के मन के संकल्पित भाव का फल नहीं है। साधु-संतों के आशीर्वाद और मार्गदर्शन ने किसी के भी मन में कभी नकारात्मक भाव नहीं आने दिया। सकारात्मक ऊर्जा मिलती रही। देवरहवा बाबा ने तो इसके निर्माण की भविष्यवाणी भी कर दी थी। उन्हें विश्वास था कि पहले अयोध्या, फिर काशी और अंत में मथुरा के मंदिर का पुनर्निर्माण का संकल्प पूरा होगा। यह सभी सहयोगियों और साधु संतों का संकल्प फल है।