प्रेमचंद के आखिरी निष्कर्ष

अमित लोकप्रिय    31-Jul-2023
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'गोदान' में किसी किसान आंदोलन की चर्चा तो नहीं है, किंतु उसका मुख्य प्रतिपादक कृषक समस्या ही है और इसके समाधान के संकेत सूत्र छोड़ते हुए प्रेमचंद ने कृषक आंदोलन के मूल तत्व को उल्लेखित कर दिया है।
मुंशी प्रेमचंदभारत में जब अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चल रहा था, जनता को एक लोकतांत्रिक समतामूलक आदर्श के झंडे तले एकजुट किया जा रहा था, तब देशी प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने अपना आसन भी डोलते देखा। समाज का प्रभावशाली समूह किसी भी हालत में अपनी उच्च स्थिति को बरकरार रखना चाहता है। ब्रिटिश भारत में ऐसी शक्तियों ने नई स्थितियों के लिए खुद को तैयार किया। सामंतवादी व्यवस्था के प्रतीक जमींदार भावी नई व्यवस्था के अनुरूप अपना परिष्कार करने में सबसे आगे रहे। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं भारतीय राष्ट्रवाद के साथ एक साथ तालमेल बनाए रखा। जमींदारों एवं पूंजीपतियों ने राष्ट्रीय आंदोलन के मुख्य ध्वजवाहक कांग्रेस पार्टी के अहिंसावादी संघर्ष को अपने वर्गीय हित के लिए अपेक्षाकृत कम नुकसानदायक मानकर समर्थन दिया। जमींदार जान चुके थे कि राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सीमित नहीं रहने वाला। उसमें किसान, मजदूर, दलित, स्त्री सभी की मुक्ति के सवाल भी उठेंगे। अत: कांग्रेस एकमात्र ताकतवर मंच था जिसके माध्यम से प्रतिक्रियावादी शक्तियों को अपने में बदलाव लाने के लिए अधिक से अधिक समय मिल पाता। अत: गांधीजी के मार्ग का समर्थन पूंजीपतियों के लिए भी मजबूरी था।
प्रेमचंद (1880-1936) एक युग दृष्टा लेखक थे और अपनी मृत्यु के कुछ महीने पहले लिखी गई कालजयी रचना 'गोदान' (1936) में बारीकी से उपरोक्त निष्कर्षों को सामने लाते हैं। जमींदार पात्र राय साहब स्वतंत्र भारत की राजनीतिक सत्ता में प्रभावशाली दखल रखने तथा तात्कालिक तौर पर किसानों के शोषण के उद्देश्य से अपने शोषण के तरीके को परिष्कृत करने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होते हैं-'पिछले सत्याग्रह संग्राम में राय साहब ने बड़ा यश कमाया था। काउंसिल की मेम्बरी छोङ कर जेल चले गए थे। तब से इलाके के असामियों की उनसे श्रद्धा हो गई थी।' राय साहब का हित ब्रिटिश सरकार से भी तत्कालिक तौर पर जुड़ा हुआ है, अत: वे ''हुक्काम से मेल जोल बनाए रखते थे।'' किंतु इस कारण उन्हें नुकसान भी हुआ- 'लाखों की जरबारी (नुकसान) उठाई'' और काफी दिनों तावान (हर्जाना) भी देना पड़ा। राय साहब को अफसोस है कि इस कारण ''काली किताब में नाम दर्ज हो गया।'' अत: राय साहब ने इस 'अपराध' का मार्जन करना बेहतर समझा। अपनी व्यवहार कुशलता से उन्होंने सरकार का दिल जीत लिया। परिणाम निकला कि 'अबकी हिज मजेस्टी के जन्मदिन पर उन्हें राजा की पदवी ही मिल गई।' ऐसी थी रायबहादुरों की राष्ट्रीयता!
“प्रेमचंद की नजर अपने समय में चल रहे मजदूर आंदोलनों पर भी थी। उन्होंने कारखानों के मजदूरों की हड़ताल की विफलता के बहाने मजदूरों के नेतृत्व स्तर पर विद्यमान गड़बड़ी को भी रेखांकित किया है। ”
जमींदारों की तरह पूंजीपति भी कांग्रेस से जुड़ने में पीछे नहीं रहे। राय साहब के शिकार खेलने की आदत की आलोचना करने पर उद्योगपति मिस्टर खन्ना जब राय साहब द्वारा डरपोक कहे जाते हैं, तब खन्ना की दलील है कि 'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।' गोदान में शराब की दुकानों पर पिकेटिंग, गांधी आश्रम, धरना, सत्याग्रह जैसे शब्दों की चर्चा के रूप में गांधीवादी रणनीति वाले राष्ट्रवादी आंदोलन की जानकारी दिया गया है, लेकिन साथ ही गांधीवाद से मोहभंग की भी चर्चा की गई है। मिस्टर खन्ना राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने के कारण दो बार जेल गए। कांग्रेसियों की तरह खद्दर पहनते थे, किंतु उनका देश-प्रेम कुछ इस तरह का है-''जो रमनी से प्रेम नहीं कर सकता उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं।'' गांधीजी के एक पत्नीत्व में उनका विश्वास नहीं है। पत्नी को पीटना और स्त्रियों के पीछे भागना उनके चरित्र की विशेषता है। गांधीजी की शराबबंदी से वह सहमत नहीं। फ्रांसीसी शराब पीते थे। ट्रस्टशिप में भी उनका विश्वास नहीं है। मजदूरों का येन-केन प्रकारेण शोषण में उनका मन रमता है और किसानों के ऊख की तौल तथा उसके मूल्य निर्धारण में मनमानी कर लेना उनकी राष्ट्रीयता की पोल खोल देता है। मध्यवर्गीय पात्र डाक्टर मालती भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेती है, लेकिन फैशन की तरह। वह कहती है -''मैं अपने मतलब से जेल गई थी, उसी तरह जैसे राय साहब और खन्ना गए थे।'' मालती का यह वक्तव्य राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व के चरित्र को बहुत हद तक उजागर कर देता है। मेहता जो कि एक प्रोफेसर हैं, राष्ट्रीय आंदोलन के वर्गीय चरित्र को अनावृत करते हुए कहते भी हैं- ''राष्ट्रीय आंदोलन को दो-तीन साल तक किसने इतनी धूमधाम से चलाया?'' इसके लिए वह धनिक वर्ग के सहयोग की चर्चा करते हैं।
गोदान के रचनाकाल के समय 1935 के भारत शासन अधिनियम ने स्वशासन की दिशा में निर्णायक पहल की थी। भारतीय प्रतिनिधियों के हाथ में पहले से कहीं ज्यादा अधिकार मिलने वाले थे। भारतीय जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव लोकतांत्रिक होते। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की ओर बढ़ने का संकल्प पूरा होने वाला था। किंतु लोकतांत्रिक व्यवस्था की भी गड़बड़ियां होती हैं। एक पात्र मिर्जा खुर्सेद इस ओर संकेत कर कहते हैं कि डेमोक्रेसी में भी जनता के सेवकों को ऊंचे वेतन मिल जाते हैं। मामूली कामों में भी महीनों तक बहस करते चलते हैं। भारत के संसदीय काम-काज के आउटपुट पर यह भविष्यवाणी कितनी सटीक है! गोदान का एक पात्र कहता है, डेमोक्रेसी, व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज है।'' मेहता भी मानते हैं कि ''आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ में है।'' प्रेमचंद यह भी देख रहे थे कि ''चुनाव में वही बाजी ले जाता है जिसके पास रुपये हैं।'' तनखा जैसे चरित्र गढ़ कर उन्होंने दिखाया है कि तब इलेक्शन मैनेजमेंट में भी कुछ लोग दक्ष हो गए थे। आज प्रशांत किशोर याद आ जाते हैं।
इतना कुछ दिखाने के बावजूद मतलब कई अंतर्विरोध के बावजूद प्रेमचंद मानते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र बहुआयामी रहा है। 'गोदान' में किसी किसान आंदोलन की चर्चा तो नहीं है, किंतु उसका मुख्य प्रतिपादक कृषक समस्या ही है और इसके समाधान के संकेत सूत्र छोड़ते हुए प्रेमचंद ने कृषक आंदोलन के मूल तत्व को उल्लेखित कर दिया है। गोबर और राम सेवक के रूप में कृषक नेतृत्व की संभावना भी रेखांकित की है। राष्ट्रीय आंदोलन की पहुंच गांवों तक हो गई थी, इसका साक्ष्य एक पात्र धनिया के इस कथन में देखा जा सकता है कि 'जेल जाने से सुराज नहीं मिलेगा। प्रेमचंद की नजर अपने समय चल रहे मजदूर आंदोलनों पर भी थी। उन्होंने खन्ना के मजदूरों की हड़ताल की विफलता के बहाने मजदूरों के नेतृत्व स्तर पर विधमान गड़बड़ी को रेखांकित किया है। सिलिया--मातादीन प्रसंग में हरखू के नेतृत्व में मातादीन का धर्म भ्रष्ट किया जाना दलितों में आ रहे जुझारू राजनीतिक चेतना का संकेत है। इतिहास के पृष्ठ दलितों के अधिकार चेतना के लिए की जाने वाली लड़ाइयों से भरे हुए हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन में सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी लड़ाइयां लड़ी गई थीं। अत: दहेज प्रथा, बेमेल विवाह, बहु-विवाह और स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले घरेलू अत्याचार की भी चर्चा करते हैं। गांधीजी के मुक्ति आंदोलन में रचनात्मक कार्यों (समाज सुधार, सफाई, करघा) की एक नीतिगत भूमिका रही थी। प्रेमचंद ने इस तथ्य को पकड़ा था और सामाजिक उत्थान में मध्यम वर्ग की भूमिका को रेखांकित किया था। मिर्जा खुर्सेद वेश्याओं के उत्थान के लिए एक नाटक मंडली गठित करने की योजना सोचते हैं। मेहता विधवाओं को अपने वेतन का एक हिस्सा दान देते हैं। मद्यपान न करने का संकल्प लेते हैं। मालती गरीबों के बीच स्वास्थ्य जागरूकता की शिक्षा देती है, उनका मुफ्त इलाज करती है। स्त्रियों में अपने अधिकार के प्रति जो जागरूकता बढ़ रही थी, उसका चित्रण करना प्रेमचंद नहीं भूलते। आज भी कई लोग एनजीओ के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में लगे हुए हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में पहली बार बड़े पैमाने पर स्त्रियां घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करती हैं। प्रेमचंद इतनी बड़ी घटना और उसके प्रभाव को नजरअंदाज नहीं कर सकते थे। हिंदू-मुस्लिम एकता भी राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य रहा था। प्रेमचंद ने रायसाहब की मित्र-मंडली में खुर्सेद की स्वीकार्यता और गोबर की अल्लादीन से मित्रता दिखाकर इसका प्रमाण प्रस्तुत किया है।
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