बिहार की राजधानी पटना में विरोधी पार्टियों की बैठक को महत्वहीन कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है। उपस्थित 15 दलों की 11 राज्यों में सरकारें हैं। सभी राज्यों की 4123 विधानसभा सीटों में इनके पास 1717 यानी 42 प्रतिशत सीटें हैं। लोकसभा चुनाव में इन दलों के 142 सांसद निर्वाचित हुए थे। जो कुल सदस्यों का करीब 26 प्रतिशत है। राज्यसभा में इनकी संख्या 94 है जो कुल सांसदों का 38 प्रतिशत है। पिछले लोकसभा चुनाव में इन 15 पार्टियों को कुल 22 करोड़ 30 लाख वोट मिले थे। वैसे भी ऐसी बैठक, जिसमें 5 राज्यों के मुख्यमंत्री हों, भाजपा के बाद दूसरे सबसे बड़े दल के अध्यक्ष एवं शीर्ष नेता हों तो देश का ध्यान उस ओर रहेगा ही। इन सारे दलों और नेताओं का अपने राज्यों में एक निश्चित जनाधार भी है। किंतु क्या इतने से यह मान लिया जाए कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने में उसमें सफलता मिल गई है?
नीतीश कुमार निश्चित रूप से इस मायने में स्वयं को सफल मान रहे होंगे कि उनके आमंत्रण पर पटना में एक साथ इतने नेता पहुंचे और लंबा विचार विमर्श किया। हालांकि एक तरफ पटना में विपक्षी नेताओं का जुटान था तो दूसरी ओर अमेरिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफल यात्राएं भी देश के अंदर विशेष संदेश दे रही थी। लोग देख रहे थे कि विपक्षी नेता केवल नरेंद्र मोदी और भाजपा को हटाने के लिए बैठे हैं जबकि मोदी देश की सामरिक, आर्थिक राजनीतिक हैसियत बढ़ाकर महाशक्ति बनने की दृष्टि से न केवल साझेदारी कर रहे हैं, बल्कि अमेरिका जैसा देश भी उनके साथ विशिष्ट व्यवहार करने को विवश है। बहरहाल, पटना बैठक पर केंद्रित करें तो इतनी लंबी कवायद के बावजूद अगर बैठक से एक व्यक्ति को आगामी बैठकों के आयोजक या संयोजक के रूप में जिम्मेवारी नहीं मिल पाई तो इसका अर्थ क्या है? दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल का पत्रकार वार्ता में शामिल नहीं होने के साथ आम आदमी पार्टी की ओर से जारी बयान विपक्षी एकता के संदर्भ में प्रथम ग्रासे मक्षिका पात: वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है। आप ने स्पष्ट किया कि दिल्ली से संबंधित केंद्र सरकार के अध्यादेश के विरुद्ध सारी विपक्षी पार्टियां हैं लेकिन कांग्रेस नहीं। अगर कांग्रेस का यही स्टैंड है तो आगे भाजपा विरोधी पार्टियों की बैठक में वह शामिल नहीं होगी। जो सूचना है बैठक में केजरीवाल तथा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बीच तीखी बहस भी हुई।
इससे इतना साफ हो गया कि केजरीवाल की पार्टी अभी उन बैठकों का हिस्सा नहीं बनेगी जिनमें कांग्रेस शामिल होगी। शिमला बैठक की मेजबानी कांग्रेस कर रही है, इसलिए भी उनके शामिल होने की संभावना खत्म हो गई है। वैसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने संबोधन में माकपा के सीताराम येचुरी सहित राहुल गांधी का नाम लिया और आगे बैठकों में शामिल होने और एक साथ लड़ने का बयान भी दिया किंतु वह कह चुकी हैं कि कांग्रेस वामपंथी पार्टियों का समर्थन करती है तो उसका समर्थन भूल जाए। क्या ममता ने अपना रुख बदल लिया है? और क्या वामपंथी पार्टियां जो ममता के विरुद्ध लड़ रही हैं उन्होंने समझौते का मन बना लिया है? जब तक ममता और वामो का नेतृत्व करने वाली माकपा स्पष्ट घोषणा नहीं करती ऐसा मानने का कारण नजर नहीं आएगा। वास्तव में यह कहने भर से देश आश्वस्त नहीं होगा कि हम साथ मिलकर लड़ेंगे।
जिस तरह से लंबे समय से नीतीश कुमार विपक्षी एकता की कवायद कर रहे हैं। उस लिहाज से पटना बैठक से कुछ ठोस परिणाम सामने आना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल गांधी ने कहा कि यह विचारधारा की लड़ाई है। हमारे बीच कुछ मतभेद हो सकते हैं पर हम उदारता के साथ मिलकर देश को बचाएंगे। शरद पवार ने भी इतना ही कहा कि व्यापक हित में हम सब साथ हुए हैं और आगे साथ रहेंगे। किसी ने भी नहीं कहा कि हम अपने राज्य में गठबंधन के लिए अपनी सीटें कम करेंगे। यह भी नहीं कहा कि हमारे राज्य में हमारी प्रतिस्पर्धा अमुक पार्टी से है लेकिन भाजपा को हराने के लिए उनके साथ भी गठबंधन करेंगे और अपनी सीटें उन्हें देंगे।
“अरविंद केजरीवाल का पत्रकार वार्ता में शामिल नहीं होने के साथ आम आदमी पार्टी की ओर से जारी बयान विपक्षी एकता के संदर्भ में प्रथम ग्रासे मक्षिका पात: वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी बैठक में शामिल नहीं होगी। ”
केवल बैठने के लिए बैठना है, तो समस्या नहीं है। लक्ष्य गठबंधन है तो उस दिशा में इन्हीं नेताओं को आगे आना होगा। अगली बैठक में ऐसा नहीं करते तो इसकी संभावना कम दिखेगी कि भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का एक ही उम्मीदवार खड़ा होगा। चाहे जितने बयान दे दीजिए मूल बात यही है कि कौन पार्टी गठबंधन के लिए कितनी सीटें दूसरे के लिए छोड़ती हैं। गठबंधन सरकारों में हर पार्टी ज्यादा सीटें चाहती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सत्ता के मोल-भाव या सरकार बनने पर दबाव बनाने के लिए संख्या बल मायने रखता है। भाजपा पराजित हो यह मानसिकता तो सबकी है। इसके लिए अपनी हैसियत कम करने,अपनी सीटों की बलि चढ़ाने की सोच अभी तक पैदा होती नहीं दिख रही।
विपक्ष पहले ही साफ कर चुका है कि उसकी ओर से प्रधानमंत्री का कोई उम्मीदवार नहीं होगा। जब चेहरा नहीं होगा तो संयुक्त उम्मीदवार एक मुख्य कारक हो सकता है। संयुक्त उम्मीदवार अनेक राज्यों में भाजपा के लिए सशक्त चुनौती पेश करेगा। अभी तक की स्थिति में ऐसा नहीं दिखता कि जहां-जहां जिन पार्टियों का गठबंधन है उसके साथ राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा गठबंधन होगा जिनमें दूसरे दल भी सीटों में हिस्सेदारी के साथ जुड़ेंगे। उदाहरण के लिए बिहार में जदयू ,राजद , कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां आदि का गठबंधन है और रहेगा। महाराष्ट्र में कांग्रेस, राकांपा, शिवसेना उद्धव और उसके साथ एकाध और हो सकते हैं। तमिलनाडु में द्रमुक के नेतृत्व वाला गठबंधन कायम रहेगा। इसी तरह झारखंड में कांग्रेस, झामुमो एवं अन्य कुछ दलों का गठबंधन बना रहेगा। मोटा -मोटी बिहार को छोड़ दें तो इन सारे गठबंधन दलों का गठजोड़ 2019 में था और परिणाम हमारे सामने है। इसके अलावा किसी गठबंधन की संभावना ज्यादा नहीं दिखती। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी अभी तक कांग्रेस बसपा या किसी और के साथ जाने की मन:स्थिति में नहीं दिखती। सपा की सोच है कि कांग्रेस आगे बढ़ी तो उनका वोट बैंक खिसक सकता है। बंगाल में ममता बनर्जी, कांग्रेस और वाम मोर्चे के साथ मिलकर लड़ने की तैयारी नहीं दिखा रही है।
मान लीजिए थोड़े बहुत ऐसे गठबंधन हो भी जाएं तो क्या इसका असर होगा? देश ने गठबंधन सरकारों के अस्थिर और अनिश्चित राजनीति वाला दौर झेला और परिणाम भुगता है। इसी की प्रतिक्रिया में मतदाताओं ने बहुमत वाली सरकारों के पक्ष में मतदान करना शुरू किया था। आसानी से लोग गठबंधन सरकारों के दौर में वापस आने को तैयार नहीं होंगे। ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां दूसरे राज्यों में एक दूसरे का वोट बढ़ाने की स्थिति में भी नहीं हैं। उम्मीदवारों के साथ चुनावी मुद्दे हमेशा परिणाम के मुख्य निर्धारक रहे हैं। क्या विपक्ष जो मुद्दे उठा रहा है जनता के लिए भी मतदान करने के वही कारक बनेंगे? क्या लोग मान लेंगे कि मोदी के नेतृत्व में संविधान खत्म हो रहा है, लोकतंत्र बचने की संभावना नहीं और अल्पसंख्यकों के धार्मिक एवं अन्य अधिकार छीने जा रहे हैं? यही मुद्दे हैं तो इन पर जो ध्रुवीकरण होगा उसमें विपक्ष को लाभ मिलने की संभावना एक-दो राज्यों में हो सकती है राष्ट्रीय स्तर पर नहीं। आम व्यक्ति देख रहा है कि विपक्ष के नेता लगातार सरकार विरोधी बयान देते हैं हमले करते हैं, जो चाहते करते हैं। तो लोकतंत्र का दमन कहां हुआ है?
भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच एजेंसियों की कार्रवाई को सरकार का दमन बताने की रणनीति ज्यादा सफल नहीं हो सकती क्योंकि इनमें न्यायालयों की भूमिका है। मोदी सरकार के विरुद्ध ऐसा जन आक्रोश नहीं दिखा जिससे मान लिया जाए कि लोग लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराना चाहते हैं। विधानसभा चुनावों में पराजय भाजपा के लिए चिंता का विषय है क्योंकि पार्टी के अंदर का असंतोष, विद्रोही उम्मीदवारों का खड़ा होना सिरदर्द था और इसका समाधान होता अभी तक नहीं दिखता है। यही असंतोष और विद्रोह राष्ट्रीय चुनाव में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। जो राज्यों में सरकार बदलना चाहते हैं सर्वेक्षणों में उनने भी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का ही प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन किया। तो यह भी जनता की मानसिकता है। विपक्ष भाजपा को चुनौती देना चाहती है तो जनता को सहमत कराने वाले मुद्दे और सशक्त स्थिर गठबंधन वाली एकजुटता के साथ आना होगा जिसकी झलक अभी तक नहीं मिली है।