प्रधानमंत्री ने मध्य प्रदेश में जिस अंदाज में समान नागरिक संहिता को लेकर विपक्ष को घेरा, उससे साफ है कि केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता को लेकर गम्भीर है और नरेंद्र मोदी इसे लागू करने का अवसर हाथ से जाने नहीं देंगे।
राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और वोट बैंक की राजनीति के कारण 'एक देश, एक कानून' आज तक सपना ही रहा। परन्तु अब लगता है कि यह सपना पूरा होने वाला है। ऐसा इसलिए कि 22वां विधि आयोग इस पर धार्मिक संगठनों और आम लोगों की राय मांग कर वह औपचारिकताएं पूरी कर रहा है, जिसको आधार बनाकर कुछ लोग सड़क घेर कर बैठ जाते हैं। अर्थात आम सहमति। ध्यान देने की बात यह है कि 2018 में 21वें विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि अभी इसका उचित समय नहीं आया है और ना ही यह आवश्यक है। फिर भी 22वां विधि आयोग समान नागरिक संहिता पर आगे बढ़ रहा है तो संकेत साफ हैं। रही-सही कसर प्रधानमंत्री ने यह कह कर निकाल दी है कि ‘‘एक ही घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक नियम हो और दूसरे के लिए अलग नियम हो, तो वह घर कैसे चलेगा?’’ मध्य प्रदेश में भाजपा कार्यकर्ताओं की एक सभा में उन्होंने साफ कहा कि विपक्ष इस विषय पर मुसलमानों को भड़का रहा है। संवैधानिक प्रावधान और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर की गई टिप्पणियों का हवाला देकर उन्होंने जो कहा उसका संदेश साफ है कि उनकी सरकार इस बार नहीं चूकेगी।
समान नागरिक संहिता इसलिए आवश्यक है कि हमारे यहां विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने का कानून सबके के लिए एक-सा नहीं है। हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध के लिए एक कानून हैं, जबकि मुसलमान, ईसाई, जोराष्ट्रियन और पारसियों के लिए अलग-अलग कानून हैं। हिन्दुओं के लिए हिन्दू लॉ है, तो मुसलमानों के लिए मुस्लिम लॉ। इसी तरह अन्य धर्मों के लिए भी है, परन्तु इनमें अन्तर है, विशेषकर महिलाओं के अधिकारों में। इसे इस तरह समझिए कि हिन्दू लॉ के अंतर्गत पुरुष एक से अधिक विवाह नहीं कर सकता। इसमें एक तरफा विवाह विच्छेद दुरुह है, क्योंकि विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता है। इसके लिए ठोस कानूनी आधार होना चाहिए। हिन्दू लॉ में महिला और पुरुष के अधिकार समान हैं और महिलाओं को अपने पिता और पति की संपत्ति में बराबर का हिस्सा है। जबकि इस्लाम में विवाह एक अनुबंध मात्र है। मुसलमान पुरुष चार विवाह कर सकते हैं। वह अपने जीवन में बीसियों विवाह कर सकता है, शर्त केवल एक है कि एक समय में चार से अधिक पत्नी ना हो। विवाह विच्छेद के लिए तीन बार तलाक कहने के बाद कुछ औपचारिकताएं पूरी कर मुस्लिम महिलाओं को एक और निकाह और हलाला के नर्क में ढकेल दिया जाता है। गुजारा भत्ता तो भूल ही जाइए। प्रसिद्ध शाहबानो केस इसी गुजारा भत्ते के लिए हुआ था, जिसमें राजीव गांधी की सरकार ने मौलानाओं के आगे घुटने टेक दिए और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया।
इस बारे में ईसाई और पारसियों के कानून अधिक मानवीय हैं, पर समान नहीं हैं। परिणामस्वरूप अदालतों के लिए इस तरह के केस सिर दर्द बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें अलग-अलग धर्मों के कानून के हिसाब से चलना पड़ता है और इसमें काफी सारा समय बर्बाद होता है। यह संविधान के मूल भावना के भी विपरीत है, क्योंकि भारतीय संविधान में जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर भेदभाव की मनाही है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय कई बार समान नागरिक संहिता लाने की बात कह चुका है। कुछ लोग संविधान के अनुच्छेद 25 के आधार पर समान विधान का विरोध करते रहे हैं, पर उन्हें ध्यान दिलाना आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय 2003 में ही जॉन वल्लमटृटम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में साफ कह चुका है कि धर्म का सामाजिक विधि-विधान से कोई टकराव नहीं है। ये दो अलग-अलग बातें हैं।
“समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में है। अनुच्छेद 44 में साफ लिखा है कि देश भर में एक समान कानून लागू करना राज्य का दायित्व है। लेकिन संविधान लागू होने के 72 साल हो गए, केंद्र सरकार इसे पूरा करने में विफल रही है। ”
फिर भी कुछ राजनीतिक दल इसका विरोध करते रहे हैं, तो इसके पीछे वोट बैंक, विशेषकर मुसलमानों के वोट की राजनीति है। सभी जानते हैं कि मुसलमानों का राजनीतिक नेतृत्व मौलवियों के हाथ में है, जो महिलाओं को समान अधिकार नहीं देना चाहते। जब भी इस पर सवाल किया जाता है, तो उनका रटा-रटाया सा उत्तर होता है कि शरिया में इसका उचित प्रावधान है और इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं हैं। वे कभी इस पर चर्चा नहीं करते कि शरिया में महिलाओं को जो अधिकार दिए गए हैं, वह अन्य धर्मों की तुलना में कितना उचित है। ध्यान देने की बात यह है कि ये लोग शरिया कानून की बात केवल शादी-ब्याह, सम्पत्ति में हिस्सेदारी में ही करते हैं। आपराधिक कानून में नहीं क्योंकि इसमें इस्लामी कानून बेहद कठोर है। सेकुलर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने आज तक कभी मुल्ले-मौलवियों की इस सोच पर सवाल नहीं किया, बल्कि समय-समय पर उन्हें पुष्ट ही किया। इसलिए वे भारत के बहुलतावादी समाज और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का तर्क देकर इसका विरोध करते रहे हैं। पी. चिदम्बरम और भूपेश बघेल की बयानबाजी को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
केंद्र सरकार को नगालैण्ड और मिजोरम में समान नागरिक संहिता लागू करने में कुछ समस्याएं आ सकती हैं, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 371ए, (13 वां संविधान संशोधन, 1962) और 371जी (55 वां संविधान संशोधन, 1986) में ऐसे प्रावधान हैं, जिनमें यह कहा गया है कि धार्मिक और सामाजिक विधि विधान पर संसद के कानून तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक कि राज्य की विधान सभा उस पर सहमत नहीं होती है। परन्तु अभी यह कहना कठिन है कि इस पर नगालैण्ड और मिजोरम सरकार के साथ कोई सहमति नहीं बनेगी। असल बात यह है कि क्या कुछ लोगों के विरोध के कारण बहुसंख्यक आबादी के हित में उठाए जाने वाले कदम को एक बार फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए। बिल्कुल नहीं।
क्या आदिवासी हिन्दू नहीं हैं
छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के आदिवासी संगठनों का कहना है कि समान नागरिक संहिता से आदिवासियों की पहचान पर संकट उत्पन्न हो जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इसका उद्देश्य यह बताना है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं? केंद्र सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि इसके पीछे सचमुच आदिवासियों की सोच है या यह धर्मांतरण कराने वाले संगठनों का षड्यंत्र है? यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि नगालैण्ड बैपटिस्ट चर्च काउंसिल ने इसका विरोध किया है। इनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि जब विधि आयोग ने इस पर सबकी प्रतिक्रिया मांगी है, तो फिर आन्दोलन का औचित्य क्या है? आप अपनी बात विधि आयोग के सामने रख सकते हैं। आश्चर्य की बात है कि भाजपा के बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जैसे आदिवासी नेता चुप हैं।