आरक्षण का मूल उद्देश्य है वंचित समाज को मुख्य धारा में लाना, ना कि उनके बीच एक सवर्ण खड़ा कर देना। पर व्यवहार में ऐसा ही हो रहा है। आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा कुछ ही जातियों के सम्पन्न लोग हड़प कर जा रहे हैं, क्योंकि नीतियां ही ऐसी हैं।
सिविल सेवा 2022 का परिणाम आते ही एक बार फिर से आरक्षण पर चर्चा गर्म है। इसलिए कि एक बार फिर जनजातियों के लिए आरक्षित कोटे से मीनाओं ने 72 में से 38 सीटें झटक लीं। साल 2021 में भी इस समुदाय के 31 अभ्यर्थी सफल रहे थे, जबकि कुल आरक्षित सीटें थीं 60। ध्यान रहे कि जनजातियों की कुल जनसंख्या मंय मीना केवल 2 प्रतिशत हैं। अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स में मई 2007 में एक रिपोर्ट छपी थी, जिसके अनुसार मीनाओं को टंकण की एक भूल के कारण अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया। 1954 में बनी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आयोग ने भील मीनाओं को अनुसूचित जनजाति की सूची में रखने की अनुशंसा की। जब वह टंकण में गया तो ‘भील मीना’ के बीच एक कॉमा आ गया और वह ‘भील, मीना’ हो गया। इस तरह भीलों के साथ मीनाओं को भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया। जबकि वे लोग तब पश्चिम राजस्थान की सम्पन्न जातियों में गिने जाते थे। सम्भवत: यही कारण है कि वे जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों का एक बड़ा हिस्सा ले जाते हैं।
यह अकेले अनुसूचित जनजाति के मीनाओं की कहानी नहीं है। कुछ ऐसा ही हाल अन्य पिछड़ा वर्ग को दी जा रही आरक्षण का भी है। वहां यादव, कुर्मी, कुशवाहा आदि का बोलबाला है। लोग बता रहे हैं कि केंद्र से लेकर राज्य तक में लगभग 60 प्रतिशत नौकरी यादव अभ्यर्थी ले जा रहे हैं। पिछले दिनों सिविल सेवा का जो परिणाम आया है, उसमें 30 सफल अभ्यर्थियों के नाम के पीछे यादव लगा है। बहुतेरे ऐसे भी होंगे, जिनके नाम में यादव की जगह अहीर, सिंह आदि लगा होता है। ध्यान रहे कि इस बार अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 263 सीटें आरक्षित थीं और इस वर्ग में आने वाली जातियों की कुल संख्या 2479 है तो सोचिए कि बाकी जातियों को क्या मिला होगा।
इसके पीछे क्रीमी लेयर का मायाजाल है। चूंकि आरक्षण का आधार सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन है, तो अन्य पिछड़ा वर्ग के सम्पन्न लोगों को अलग रखने के लिए सालाना आय की सीमा है। आरम्भ में यह 1 लाख रुपए प्रति वर्ष था, जो अब कई पायदान तय कर 8 लाख रुपए तक जा पहुंचा है। सोचिए कि कितने ऐसे परिवार होंगे जो साल में 8 लाख अर्थात लगभग 66 हजार रुपए महीना कमा लेते होंगे? यह हास्यास्पद है, क्योंकि एक भारतीय परिवार की औसत आय 4 लाख रुपए वार्षिक के आसपास है। इस हिसाब से प्रति महीना 33 हजार रुपए हुए। फिर सालाना आय की सीमा 8 लाख रखने का क्या तुक है? परिणाम है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के अलावा सीधे क्लास 1 और क्लास 2 नौकरी के लिए चुने गए अधिकारियों के बच्चों को छोड़ कर शेष सभी अन्य पिछड़ा वर्ग को दिए जा रहे आरक्षण के हकदार हैं।
“देश में लगभग 750 अनुसूचित जनजातियां हैं और दर्जनों उपजातियां भी हैं, जैसे कि कूकी जनजाति की 37 उपजातियां हैं। इनमें सबसे अधिक भील 38 प्रतिशत और गोण्ड 36 प्रतिशत हैं। क्या किसी ने यह जानने का प्रयास किया है कि सिविल सेवा की परीक्षा में इनको क्या मिलता है? इसलिए आरक्षण देने के वर्तमान आधार पर चर्चा आवश्यक है।”
क्रीमी लेयर कितना बड़ा मजाक है यह इससे समझिए कि इसमें अभ्यर्थी के स्वयं की आय या उसके पति/पत्नी की आय को नहीं जोड़ा जाता। केवल उसके माता-पिता की बीते तीन साल की आय के आधार पर यह तय होता है कि कोई व्यक्ति क्रीमी लेयर में है या नहीं। उसमें यदि किसी के पिता सरकारी नौकरी में हैं, परन्तु वह ग्रुप बी से नीचे की नौकरी है, तो उसे आरक्षण का लाभ मिल जाएगा। भले उसके माता-पिता 8 लाख से अधिक पाते हों। एक और मजाक यह है कि इसमें तनख्वाह और कृषि से होने वाली आय को अलग-अलग जोड़ा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों में से कोई भी आय 8 लाख से अधिक ना हो। मतलब 15 लाख सलाना आय वाले भी क्रीमी लेयर के बाहर हुए। तो फिर बचा कौन? परिणामस्वरूप कमजोर पृष्ठभूमि के अधिकांश पिछड़े इसका लाभ नहीं ले पाते।
इसका एक प्रतिफल यह भी है कि आरक्षित वर्ग के कुछ लोग आरक्षण का बेहिसाब लाभ ले रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण टीना डाबी हैं। उनकी बहन रिया डाबी ने 2020 में पहले प्रयास में ही आईएएस पा लिया। उनके पिता टेलिकॉम विभाग में अधिकारी रहे हैं। उनकी मां हिमानी काम्बले भी भारतीय इंजीनियरिंग सेवा में थीं। मीना समुदाय से आने वाले आईएएस रमेश चन्द्र की दो बेटियां अनामिका मीना और अंजली मीना 2019 में आईएएस बनने में सफल रहीं। इंटरनेट खंगालिए ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। ठीक उसी तरह जैसे न्यायपालिका में जजों के परिवार के लोग भरे पड़े हैं। सवाल यह है कि क्या आरक्षण का उद्देश्य वंचितों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अवसर उपलब्ध कराना था, या कुछ जातियों के सम्पन्न लोगों को आगे बढ़ाना? व्यवहार में तो यही हो रहा है।
चिंताजनक बात यह है कि आरक्षित वर्ग से भी अधिकांशत: वही लोग अधिकारी बन रहे हैं, जो मानसिक रूप से ‘एलिटिस्ट’ हैं। फिर कहते हैं कि भारतीय नौकरशाही पर मनुवाद हावी है। यदि हम भारतीय नौकरशाही को आम लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते हैं, तो ऐसे लोगों तक यह अवसर पहुंचाना होगा जिनको सचमुच में आरक्षण चाहिए। दिक्कत यह है कि वर्तमान राजीतिक वातावरण में आरक्षण पर सार्थक बहस करना बेहद कठिन है। परन्तु इससे बचना घातक होगा। इसलिए अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग को इसका अध्ययन करना चाहिए कि आखिर वह कौन सा रास्ता हो सकता है, जिसके माध्यम से उन लोगों को भी आरक्षण का लाभ मिले जो पीछे रह जा रहे हैं। आरक्षण का लाभ अधिक से अधिक वंचित लोगों तक पहुंचे उसका एक सरल तरीका यह हो सकता है कि एक व्यक्ति के एक ही संतान को आरक्षण मिले। कम से कम दस साल के लिए ऐसा प्रावधान करके देखना चाहिए।