ममता कालिया पर विशिष्ट अंक

22 Jun 2023 19:37:56
‘सृजन सरोकार’ पत्रिका के संपादक गोपाल रंजन ने एक अंक ममता कालिया पर केंद्रित किया है। विशेषांक का एक सटीक शीर्षक संपादक ने दिया- ‘पल-पल-पुनर्नवा।’ संपादक मानते हैं कि ममता कालिया की विशेषता बेबाक अभिव्यक्ति है, उनके व्यक्तित्व में कहीं समझौता या झिझक नहीं, जूझने की अद्भुत क्षमता है जिसकी वजह से वे तमाम विसंगतियों के बावजूद समय से पूरी ताकत से लड़ती हैं।
सृृजन सरोकार का ममता कालिया विशेषांक
                                                                           पत्रिका : सृजन सरोकार 17
वर्ष 6 / अंक 2-3 / जनवरी-जून 2023
प्रधान संपादक : गोपाल रंजन
प्रकाशन : जी.एच-1/32 अर्चना अपार्टमेंट्स लाल मार्केट के सामने,
पश्चिम विहार, नयी दिल्ली-110063
 
ममता कालिया किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। बेघर, दुक्खम-सुक्खम और कल्चर-वल्चर जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास वे लिख चुकी हैं। अच्छी संख्या में बेहतरीन कहानियां उनके पास हैं। हाल ही में वे अपने संस्मरणों को लेकर चर्चा में रही हैं। उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी के बाद लेखिकाओं की भीड़ में उनकी एक अलग पहचान रही हैं। उनके सरल और सहज व्यक्तित्व से प्रेरित होकर संपादक गोपाल रंजन ने ‘सृजन सरोकार’ पत्रिका का एक अंक ममता कालिया पर केंद्रित किया है। विशेषांक का एक सटीक शीर्षक संपादक ने दिया- ‘पल-पल-पुनर्नवा।’ संपादक मानते हैं कि ममता कालिया की विशेषता बेबाक अभिव्यक्ति है, उनके व्यक्तित्व में कहीं समझौता या झिझक नहीं, जूझने की अद्भुत क्षमता है जिसकी वजह से वे तमाम विसंगतियों के बावजूद समय से पूरी ताकत से लड़ती हैं। लेखिका के आत्मकथ्य के अतिरिक्त उन पर लिखा रवींद्र कालिया के संस्मरण को पुनर्प्रस्तुत किया गया है, जो उचित ही है। साथ ही संस्मरण खंड में ममता कालिया को निकट से जानने वाले दस लेखकों में से छह लेखिकायें हैं। नीलाक्षी सिंह ने जिस तर्ज-ए-बयाँ के साथ एक बड़ी लेखिका के सह्रदयता, सहजता और संवेदनशीलता को पाठकों के सामने रखा है, वह अद्भुत लेखन है। मैं यहाँ इस संस्मरण से सिर्फ एक सवाल नीलाक्षी सिंह का और एक जवाब ममता कालिया का पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ- नीलाक्षी सिंह : स्त्री विवेक का पाठ क्या है? ममता कालिया : स्त्री विवेक राजेंद्र जी के बहुत पहले से हमारे यहां था। महादेवी वर्मा ने बहुत पहले ही स्त्री विवेक की बात कह दी थी। बाद के दिनों में स्त्री विमर्श से स्त्री छूट गयी, विमर्श ज्यादा चमक गया और एक ढाँचे में फिट हो जानेवाली रेडीमेड रचनाओं की बाढ़ आ गई जिसने इस मुहिम को कहीं कमजोर ही किया।
इसके अतिरिक्त मीना झा, वंदना राग और वाजदा खान के संस्मरणों में एक विशिष्ट लगावबोध का अहसास होता है, और यह अहसास ममता कालिया के निष्कलुष व्यक्तित्व का प्रमाण है। ममता कालिया के साथ गीताश्री, निशांत और संदीप तोमर की बातचीत है। गीताश्री ने कुशल और खोजी पत्रकार की तरह ममता जी से प्रश्न किया है। वहीं निशांत ने सहज प्रश्न पूछे हैं, और ममताजी के लिखे-पढ़े साहित्य के दवाब में हैं। निशांत के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए ममता कालिया खुद कहती हैं कि आलोचना का तो रोजगार अब ठप हो गया है। अब कोई आलोचना नहीं सुनना चाहता। वह फेसबुक को भी संदर्भ में ले आते हुए कहती हैं कि अगर आपने 'लेकिन' शब्द लिख दिया तो वह आपका जानी दुश्मन बन जाएगा और आलोचक का काम 'लेकिन' शब्द के बिना नहीं चलता।
ममता कालिया के साहित्य और लेखन को लेकर चौबीस आलेख हैं, सारे आलेखों पर ममता के संस्मरणों का साया है। श्रीप्रकाश शुक्ल, पल्लव, विजया सती, सुभाष राय, अनिरुद्ध उमट और गणेश गणी को छोड़कर अधिकांश लेख एमए के नोट्स की तरह लिखे गये हैं। अनिरुद्ध उमट ने वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य और ममता जी के इधर आए दो संस्मरणात्मक पुस्तक पर सटीक लिखा है कि 'हिंदी में इन दिनों इन पुस्तकों का आना एक ऊब को तो मिटाता ही है बल्कि बुजुर्ग हथेली का ताप भी कुछ कथा कहता है। यह कम दिलचस्प नहीं कि उनकी पुस्तकों का विक्रय, पठन जिस अद्भुत अपनेपन से हुआ है, वह इधर अरसे से दुर्लभ या किंवदंती ही रहा है।' और 'बाहर से बेहद बोलता यह गद्य भीतर से बेहद विपरीत है। इस कदर विपरीत की भीतर की तरलता को हर सूरत अदृश्य रखने का कायल। उमट के इन दोनों अंशों से जो अर्थ ध्वनित है वही पूरे अंक पर एक टिप्पणी की तरह है। और अंत में यह दास्ताने इश्क जरूर पढ़िए, जिसे शानदार शैली में यतीश कुमार ने लिखा है। लगभग सभी ने प्रशंसा भाव से लिखा है। इसके बावजूद यह अंक बेहद महत्त्वपूर्ण है और सृजन सरोकार के पूरी टीम बधाई की पात्र है।
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