आपातकाल का आईना

युगवार्ता    01-Jul-2024   
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कांग्रेस और विपक्ष के उनके साथी दल चुनाव अभियान के दौरान अपने झूठे प्रचार से लोगों को भ्रमित कर रहे थे। वे इस बात का झूठा यानी निराधार आरोप लगा रहे थे कि संविधान खतरे में है। लोकतंत्र खतरे में है। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे तो यहां तक कह रहे थे कि अगर इस बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो यह आखिरी चुनाव होगा। इस पृष्‍ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस और विपक्ष को आपातकाल का आइना दिखाया।

इंदिरा गांधी  
एक कहावत है, ‘सौ सुनार की, एक लुहार की।’ क्या अद्भुत संयोग है! संसद सत्र के पहले ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक कथन से इस कहावत को पूरा चरितार्थ किया। 18वीं लोकसभा का पहला दिन इस बार इमरजेंसी को याद करते हुए शुरू हुआ। इसका एक विशेष कारण भी है। कांग्रेस और विपक्ष के उनके साथी दल चुनाव अभियान के दौरान अपने झूठे प्रचार से लोगों को भ्रमित कर रहे थे। वे इस बात का झूठा यानी निराधार आरोप लगा रहे थे कि संविधान खतरे में है। लोकतंत्र खतरे में है। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे तो यहां तक कह रहे थे कि अगर इस बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो यह आखिरी चुनाव होगा। इस पृष्‍ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस और विपक्ष को एक आइना दिखाया। वह जरूरी था। जो विपक्ष संविधान और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दे रहा है, उसे आपातकाल का आइना दिखाना ही उस कहावत को चरितार्थ करता है जिसका उल्लेख ऊपर आया है।
इमरजेंसी का अर्थ है, लोकतंत्र की हत्या। इमरजेंसी का दूसरा अर्थ है, अपनी राजगद्दी बचाने के लिए मनमाने ढंग से संविधान को बदनीयती से बदलना। इमरजेंसी का तीसरा अर्थ है, बोलने और जीने के अधिकार को छीनना। ऐसे अनेक अर्थ हैं, जो भयानक सपने की भांति आज इमरजेंसी को याद करते ही मानस पटल पर उभरते हैं। वह काला दिन था। 26 जून, 1975 की तारीख थी। उसे बीते 49 साल हो गए हैं। आज जब कोई उस इमरजेंसी को याद करता है तो वह बड़ी अविश्‍वसनीय घटना लगती है। जिन्होंने इमरजेंसी को झेला है, उनके लिए वह बहुत बुरे सपने जैसा है। आम आदमियों के लिए वह दहलाने और धकाने की घटना थी। आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों की क्रूरता कुख्यात है। लेकिन आजाद भारत में एक महिला ऐसी होगी जो निरकुंश शासन-सत्ता का चेहरा बन जाएगी, इसकी कल्पना क्या किसी ने की थी! लोगों को इमरजेंसी की याद इसीलिए भयानक सपने जैसी है क्योंकि उन्होंने निरकुंश शासन-सत्ता का कड़वा स्वाद चखा। उसे झेला। वह अनहोनी घटना थी।
ऐसा भी नहीं है कि भारत के लोगों ने दूसरे देशों में लोकतंत्र की हत्या होते न देखा हो। पड़ोसी पाकिस्तान में धर्म के बहाने बहुत पहले लोकतंत्र का जनाजा निकल चुका था। अनेक यूरोपीय देशों में किसी न किसी बहाने लोकतंत्र का गला घोटा जा चुका था। लातिनी अमेरिकी और अनेक एशियाई देशों में काल्पनिक खतरे के बहाने बनाकर विपक्षी आवाजें दबा दी गई थी। कई देशों में झूठे आदर्शों की आड़ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गई थी। सोवियत संघ में कम्युनिस्ट क्रांति के कथित अभियान में अमानवीय घटनाओं से भी भारतवासी परिचित थे। चीन ने किस बर्बरता से अपने देश और तिब्बत के मानवाधिकारों को कुचला था, यह भी हमें याद था। लेकिन भारत में भी ऐसा हो सकता है, इसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की थी।
जो जेपी के नेतृत्व में आंदोलन कर रहे थे, वे भी अपनी कल्पना की उंची उड़ान में जहां तक जा सकते थे, वहां इमरजेंसी लगाए जाने का तो दूर-दूर तक कोई लक्षण नहीं दिख रहा था। फिर भी इमरजेंसी लगाई गई। लोगों पर यातना के पहाड़ टूट पड़े। मानवीय आस्थाओं पर निरंतर प्रहार की घटनाएं रोज जगह-जगह होती थी। वे लोगों को डराने के लिए की जाती थी। शुरू में इमरजेंसी का प्रभाव दोहरा हुआ। एक तरफ इंदिरा गांधी और संजय गांधी की नजर में जो उनके दुश्‍मन थे, उन्हें बंदी बना लिया गया। दूसरी तरफ सख्ती का एक प्रभाव यह पड़ा कि महंगाइ थोड़ी कम हुई। ट्रेनें समय से चलने लगी। भ्रष्‍ट अफसर सहमे-सहमे से दिखने लगे। दफ्तरों में कर्मचारी हाजिरी लगाकर सिनेमा देखने या ताश खेलने नहीं जाते थे। उसी दौर में विनोबा के हवाले से ‘अनुशासन पर्व’ का ढोल बजने लगा। उससे एक राग निकला। ऐसा राग जो एक तानाशाह को सुरीला लगता है।
लेकिन इंदिरा गांधी को उस सुरीले राग का सुख ज्यादा दिन नहीं मिल सका। वैसे भी कोई तानाशाह चैन की नींद नहीं सोता। जिस जेपी पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने रेडियो भाषण में सरासर झूठे आरोप मढ़े थे उसे जल्दी ही एक चिट्ठी से चुनौती मिली। बिहार में भयानक बाढ़ आ गई थी। जेपी ने इंदिरा गांधी को एक पत्र भेजा। उसमें उन्होंने बिहार की बाढ़ में जन-जीवन की मदद के लिए खुद को एक सेवक के रूप में प्रस्तुत किया। उससे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बड़ी उलझन हुई। यह ऐसा उदाहरण है जो दो बातें साबित करता है। पहली बात का संबंध जेपी से है। उन्होंने बिना कहे यह बता दिया कि 1934 में जब बिहार में भूकंप की तबाही हुई थी तब अंग्रेज सरकार ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को जेल से रिहा किया था। जिससे वे राहत कार्य का नेतृत्व कर सके। यही काम जेपी करना चाहते थे। दूसरी बात का संबंध इंदिरा गांधी से है। वे अगर लोकतांत्रिक होती और उनमें मानवीय नैतिक चेतना होती तो तत्काल जेपी को रिहा करने का आदेश जारी हो गया होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इसे जब-जब याद किया जाएगा तो हर व्यक्ति मानेगा कि इमरजेंसी जितनी हद तक राजनीतिक दुघर्टना थी। उससे कहीं ज्यादा एक नैतिक संकट था। जो इंदिरा गांधी की असत्य पर बने रहने की जिद्द से पैदा हुआ था। इसी अर्थ में इमरजेंसी आजाद भारत का एक काला अध्याय है। इसे समझने और अनुभव करने की जरूरत बार-बार इसलिए पड़ती है क्योंकि वह एक नैतिक त्रासदी थी। जिसने भारत की लोकतांत्रिक मर्यादाओं को रौंदा। नागरिक की स्वतंत्रता छीन ली। भारत का संविधान नागरिक को अधिकारों से संपन्न करता है, लेकिन इमरजेंसी ने नागरिकों को विपन्न किया। इतना ही नहीं, जीने का अधिकार छीन कर इंदिरा गांधी की सत्ता ने इमरजेंसी में मनुष्‍यता की हत्या कर दी। यह सिर्फ लोकतंत्र पर संकट नहीं था, बल्कि उन जीवन मूल्यों की हत्या थी जो भारतीय सभ्यता के पर्याय हैं। उन आदर्शों का हनन इमरजेंसी में रोज होता रहा।

पीएन धर की पुस्‍तक   
इंदिरा गांधी ने इन सच्चाइयों से मुंह मोड़ लिया था। इसके प्रमाण अगर किसी को चाहिए तो उसे पी.एन. धर की किताब ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ के उस हिस्से को पलटना चाहिए जहां वे किताब में अपने अनुभव का वर्णन कर रहे हैं। यहां यह जानने की जरूरत है कि पी.एन. धर कौन थे? क्या वे प्रामाणिक व्यक्ति माने जा सकते हैं? वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव थे। प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव का पद सबसे महत्वपूर्ण है। वह प्रधानमंत्री कार्यालय का मुखिया होता है। वे प्रोफेसर थे और उन्हें इंदिरा गांधी ने स्वयं अपना सहयोगी बनाया था। उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है।
पी.एन. धर ने लिखा है कि जेपी के पत्र पर उन्हें रिहा नहीं किया गया। एक अफसर को यह बताने के लिए भेजा गया कि केंद्र और राज्य की सरकार वहां बाढ़ में लोगों की ठीक देखभाल कर रही है। यह एक बहाना था। उसे जेपी ने अफसर से बातचीत में तत्क्षण समझा। इसलिए एक संदेश भिजवाया। उसके बारे में पी.एन. धर ने अपनी किताब में लिखा है। उस बात को बीते करीब पांच दशक हो गए हैं। उसे पुनः पढ़ने पर इतिहास का एक ऐसा अध्याय खुलता है जो इंदिरा गांधी के चेहरे से नकाब उतार देता है। पहले यह पढ़ें कि जेपी ने संदेश जो भिजवाया वह क्या था। ‘इमरजेंसी के नाम पर चलाई जा रही नीतियों की समीक्षा का यह सबसे बढ़ियां समय है।’ इसकी तारीख पर ध्यान देना चाहिए। 5 सितंबर, 1975 की वह तारीख थी।
“भारत का संविधान नागरिक को अधिकारों से संपन्न करता है, लेकिन इमरजेंसी ने नागरिकों को विपन्न किया। इतना ही नहीं, जीने का अधिकार छीन कर इंदिरा गांधी की सत्ता ने इमरजेंसी में मनुष्‍यता की हत्या कर दी। यह सिर्फ लोकतंत्र पर संकट नहीं था, बल्कि उन जीवन मूल्यों की हत्या थी जो भारतीय सभ्यता के पर्याय हैं। उन आदर्शों का हनन इमरजेंसी में रोज होता रहा। ”
जेपी की गिरफ्तारी ढाई महीने पहले हुई थी। उन्होंने पी.एन. धर को निजी संदेश इसलिए दिया था क्योंकि वे उन्हें जानते थे। उन पर भरोसा करते थे। वे यह भी जानते थे कि पी.एन. धर इंदिरा गांधी को उनका संदेश जस का तस पहुंचा देंगे। यह काम पी.एन. धर ने किया। इमरजेंसी के उन ढाई महीनों में संविधान की आत्मा को कुचलते हुए इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटवा दिया था। इस तरह उनकी लोकसभा सदस्यता बहाल हो गई थी। अगर जेपी का संदेश समझकर इंदिरा गांधी ने संवाद और सहयोग का रास्ता चुना होता तो जो लोग उन ढाई महीने के बाद जेलों में बंद किए गए और जिन पर जुल्म ढाए गए वैसी अलोकतांत्रिक घटनाएं रूक जाती। एक अलग वातावरण बनता। जिसमें सहयोग के सूत्र होते और टकराव की घटनाएं कम होती। एक बात और होती। लोकसभा के चुनाव समय पर होते। उसे टालना नहीं पड़ता।
ऐसा तभी संभव था जब इंदिरा गांधी स्वाधीनता संग्राम के जीवन मूल्यों को याद करती। तब उन्हें यह भी ख्याल में आता कि वे उन सब सांस्कृतिक मूल्यों के विपरीत आचरण कर रही हैं जिनके लिए स्वाधीनता संग्राम में हमारे महापुरुषों ने अपना बलिदान देकर एक अमानवीय साम्राज्य सत्ता से लड़ाई लड़ी थी और उसे पराजित किया था। क्या यह मात्र संयोग था कि उस इमरजेंसी के घोर समर्थक कम्युनिस्ट थे। क्या कम्युनिस्टों को इंदिरा गांधी में सोवियत और चीनी तानाशाहों का भारतीय संस्करण दिखता था? इसका उत्तर सब जानते हैं। पी.एन. धर ने जेपी का संदेश पहुंचाया। जिसे इंदिरा गांधी ने ठुकरा दिया। लेकिन पी.एन. धर ने जैसा समझा और माना कि जेपी संवाद और सहयोग का रास्ता बनाना चाहते हैं इसलिए उन्होंने अपना प्रयास जारी रखा।
लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इंदिरा गांधी राज्य और संविधान को अपनी सत्ता के लिए रौंदती रहीं। इमरजेंसी के दिनों में ही नहीं, बल्कि उससे पहले ही राज्य और संविधान का सरासर दुरूपयोग शुरू हो गया था। उनकी सत्ता में बने रहने की आकांक्षा बलवती होती गई थी। जिसे अपने बाद संजय गांधी के लिए वे अपने पास बनाए रखना चाहती थी। दूसरी तरफ जेपी अपने आंदोलन से देश में राज्य व्यवस्था का एक विकल्प देना चाहते थे। वे समाज को भी बुनियादी रूप से बदलने का खाका खींच रहे थे। इमरजेंसी में ही चुनाव कराकर इंदिरा गांधी ने भारत के लोकतांत्रिक दबाव के सामने घुटने टेक दिए थे। लेकिन इसमें एक चतुराई भी थी। उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि वे और संजय गांधी चुनाव में हार जाएंगे। वे तो अपनी तानाशाही के पक्ष में जनादेश की उम्मीद कर रही थीं। यह बात अलग है कि चुनाव परिणाम ने साबित किया कि जनता जेपी आंदोलन के साथ थी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी के साथ जनता नहीं थी। इसलिए उनकी मंशा पूरी नहीं हुई। कांग्रेस इसे जरा याद करे।
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रामबहादुर राय

रामबहादुर राय (समूह संपादक)
विश्वसनीयता और प्रामाणिकता रामबहादुर राय की पत्रकारिता की जान है। वे जनसत्ता के उन चुने हुए शुरुआती सदस्यों में एक रहे हैं, जिनकी रपट ने अखबार की धमक बढ़ाई। 1983-86 तथा 1991-2004 के दौरान जनसत्ता से संपादक, समाचार सेवा के रूप में संबद्ध रहे हैं। वहीं 1986-91 तक दैनिक नवभारत टाइम्स से विशेष संवाददाता के रूप में जुड़े रहे हैं। 2006-10 तक पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक रहे। उसके बाद 2014-17 तक यथावत पत्रिका के संपादक रहे। इन दिनों हिन्दुस्थान समाचार समूह के समूह संपादक हैं।