प्रशासनिक अधिकारी रहे साहित्यकार विभूति नारायण राय ने ‘शहर में कर्फ्यू’, ‘किस्सा लोकतंत्र’, ‘तबादला’ तथा ‘प्रेम की भूतकथा’ जैसी कई चर्चित रचनाएं दी हैं। इनकी कई रचनाएं उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, कन्नड़, मलयालम, असमिया, उड़िया, तेलगू तथा तमिल में अनुदित और प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे गये उनके व्यंग्य ‘एक छात्र नेता का रोजनामचा’ नाम से प्रकाशित है। राय कई पत्र-पत्रिकाओं में लगभग दो दशकों से स्तम्भ-लेखन कर रहे हैं। हिंदी की महत्त्वपूर्ण मासिक पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ का सम्पादन भी भलीभांति कर रहे हैं। पुलिस विभाग में लम्बी नौकरी के बाद पांच वर्षों तक ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा’ के कुलपति भी रहे। हिंदी की दशा व दिशा को लेकर विभूति नारायण राय से सौरव राय ने लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश:
शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र मातृभाषा आधारित बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के प्रयास पर आपके क्या विचार हैं? यह कितना कारगर होगा?
यह एक महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणामों वाला निर्णय है। इसे इस तरह कह सकते हैं कि सांप भी मर गया और लाठी भी नही टूटी। नयी शिक्षा नीति यह कहती है कि बच्चे अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त एक अन्य भारतीय भाषा का भी अध्ययन करेंगे। इसमें कहीं भी अनिवार्य रूप से हिंदी पढ़ने का उल्लेख नहीं है। मसलन तमिलनाडु की सरकार चाहे तो तेलुगू या मलयालम पढ़ा सकती है। यह अलग बात है कि तमिल बच्चे दूसरी भारतीय भाषा के रूप में हिंदी ही पढ़ेंगे क्योंकि उन्हें पता है कि इससे भारत के दूसरे हिस्सों में उन्हे सुविधा होगी। मैं यहां अपने एक ऐसे ही अनुभव को साझा करना चाहूंगा। सिंगापुर में भारतीय मूल के एक सज्जन श्रीनिवास राय ने हिंदी शिक्षण को लेकर एक अद्भुत काम किया है। सिंगापुर एक बहुभाषी समाज है और उन्होंने अपनी भाषाओं को बराबरी का सम्मान दिया। उनकी चार राष्ट्र भाषाओं में एक तमिल भी है। इन चार भाषाओं के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में से कई भारतीय भाषाएं यथा हिंदी, बांग्ला, गुजराती व तेलगू भी सम्मिलित हैं। इनमें से एक भाषा का अध्ययन भी छात्रों के लिये अनिवार्य कर दिया है। श्रीनिवास जी ने हिंदी शिक्षण के लिये एक जबर्दस्त संगठन बनाया है जो प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक बच्चों को हिंदी पढ़ा रहा है। उनकी संस्था में जाकर मैंने देखा कि तमाम भारतीय परिवार जो रोजगार के सिलसिले में सिंगापुर में रह रहे हैं, अपने बच्चों को अतिरिक्त भाषा के तौर पर हिंदी पढ़ा रहे हैं। कारण बड़ा स्पष्ट है कि वे जानते
हैं कि वापस भारत लौटने पर हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में उनके काम आयेगी। यही भारत में भी होगा। बिना अनिवार्य किये भी अहिंदी प्रदेशों के बच्चे दूसरी भारतीय भाषा के रूप में हिंदी ही पढ़ेंगे और यह नयी शिक्षा नीति का अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी पर सबसे बड़ा उपकार होगा।
महात्मा गांधी ने ‘राष्ट्रभाषा बिना राष्ट्र गूंगा है’ कहकर जिस चुनौती का उल्लेख किया था। क्या आज भी यही चुनौती है?
महात्मा गांधी ने सबसे पहले हिंदी के लिये राष्ट्र भाषा शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये 1936 में वर्धा में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की स्थापना की थी। पर अब समय बदल गया है। 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान के अनुच्छेद आठ में 14 भाषाओं को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गयी है और अब यह संख्या बढ़ कर 22 तक पहुंच गयी है। हिंदी को अंग्रेजी के साथ संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता दी गयी है। यह एक संवेदनशील मसला है और किसी भी छेड़छाड़ से अन्य भाषा भाषी आंदोलित हो सकते हैं, जिससे हिंदी को नुकसान ही होगा। हमें धैर्य से हिंदी को केंद्र सरकार के कामकाज और विभिन्न प्रांतों के मध्य संपर्क की भाषा बनाने का प्रयास करते रहना चाहिये। यह खुशी की बात है कि बाजार के चलते तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी हिंदी संपर्क भाषा बनती जा रही है।
दुनिया के केवल एक चौथाई देशों की ही संविधान घोषित राष्ट्रभाषा है। बीते सात दशकों में देश में हिंदी के लिए एक सकारात्मक परिवेश बना है। क्या यह सकारात्मक परिवेश तमाम विरोधों के बावजूद इसे संवैधानिक दर्जा दिला सकता है?
मेरा ऐसा मानना है कि अब यह लगभग असंभव हो गया है कि सिर्फ़ हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिया जा सके। हमें संविधान में उल्लिखित सभी भाषाओं का आदर करना चाहिये और हिंदी को देश की संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने का प्रयास करना चाहिये। इस समय देश के प्रधानमंत्री विदेशों में हिंदी में बोलते हैं, यह एक स्वागत योग्य कदम है। 15 अगस्त या 26 जनवरी जैसे मौकों पर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हिंदी में भाषण देते हैं और यह भी इस बात का द्योतक है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के बराबर होते हुए भी उनसे एक सीढ़ी ऊपर है।
लोगों का मानना है कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न जटिल अवश्य है परंतु इसका हल असंभव नहीं। आपका इस पर क्या मत है और अगर यह सही है तो कैसे?
यह एक संवेदनशील मसला है और बिना किसी जोर जबरदस्ती इसका हल निकाला जाना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि अब पूरा देश अकेली हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करेगा। हमें वर्तमान स्थिति को ही स्वीकार कर लेना चाहिये।
युवाओं में हिंदी लिखने और पढ़ने को लेकर अरुचि देखने को मिल रही है जबकि बोलने और सुनने में आज भी हिंदी का प्रथम स्थान है। इस समस्या का हल कैसे निकाला जा सकता है?
यह सही है कि अपनी भाषा और साहित्य को लेकर हिंदी समाज में वैसा अनुराग नहीं दिखता जैसा हमे बंगाली, तमिल या मलयाली समाजों में दिखता है। यह एक गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकता है। हिंदी समाज को इस पर मिल बैठकर सोचना होगा।
ये एक प्रचलित मुहावरा हो गया है कि हिंदी कौन पढ़ता है, दूसरा हिंदी में गंभीर लेखन नहीं हो रहा है। इस बात से आप कितना सहमत हैं और अगर हैं तो यह स्थिति हिंदी में क्यों आ पड़ी?
मैं इस सरलीकृत वक्तव्य से सहमत नहीं हूं। आज जिसे हिंदी कहते हैं उस खड़ी बोली में कहानी/कविता/ उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं का इतिहास ही मुश्किल से सौ , सवा सौ साल पुराना है और इस छोटी सी अवधि में इस भाषा में बहुत कुछ महत्वपूर्ण रचा गया है। इतने कम समय में जो कुछ लिखा गया है वह किसी भी आधुनिक भारतीय या विदेशी भाषा से टक्कर ले सकता है। बड़ी मात्रा में इसमें लिखा जा रहा है और छप भी रहा है। सबसे महत्वपूर्ण है अन्य भाषाओं से होने वाला अनुवाद। सभी बड़ी भाषाओं में जो कुछ भी उल्लेखनीय छपता है, उन सबका दो तीन वर्षों में ही हिंदी में अनुवाद आ जाता है। कथेत्तर भी खूब लिखा जा रहा है।
रविन्द्र नाथ टैगोर, सी. राजगोपालाचारी और महात्मा गांधी एक समय में तीनों चाहते थे कि भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी बने लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। सवाल है कि किसी देश की अगर राष्ट्रभाषा न हो तो उस देश को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
मैंने ऊपर इस प्रश्न का उत्तर दे दिया है। हमें ज्यादा बड़प्पन दिखाना चाहिये और सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान करना चाहिये। हिंदी देश को जोड़ने वाली भाषा है, हमारा दुराग्रह उसे तोड़ने वाला बना देगा। हमारे पड़ोस पाकिस्तान में ऐसा हो चुका है, जब उर्दू को जबरदस्ती बांग्ला भाषियों पर, जो पाकिस्तान के पचास प्रतिशत से अधिक थे, पर लादने की कोशिश ने देश को तोड़ दिया।