प्रधानमंत्री द्वारा देश को दिया गया पंच प्रण देश को समृद्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद प्रगति की रफ्तार बढ़ी है। सिर्फ यही नहीं आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को वह प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो कभी प्राप्त नहीं थी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए आगामी 25 साल के लिए पंच प्रण पर अपनी शक्ति, संकल्प तथा सामर्थ्य केंद्रित करने का आह्वान किया था। यदि हम सभी देशवासी एक साथ मिलकर इनका अनुपालन करें तो समृद्ध एवं विकसित भारत का निर्माण कर सकते हैं। 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने जिस पंच प्रण की घोषणा की, उस पर अभी तक देश के किसी भी नेतृत्वकर्ताओं का ध्यान नहीं गया था। इसका नतीजा यह रहा कि देश पर अंग्रेजियत और पाश्चात्य संस्कृति हावी रही जिससे विकास का पहिया भी धीरे-धीरे घूमता रहा। लेकिन अब सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विमर्श के साथ-साथ देश की दृष्टि भी बदलने लगी है।
प्रधानमंत्री द्वारा देश को दिया गया पंच प्रण देश को समृद्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद प्रगति की रफ्तार बढ़ी है। सिर्फ यही नहीं आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को वह प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो कभी प्राप्त नहीं थी। इसका सबसे ताजा और बेहतरीन उदाहरण मेक्सिको के राष्ट्रपति एंड्रेस मैन्युल का राष्ट्रसंघ में यह सुझाव कि यूएन के महासचिव एंटोनियो गुतेरेस, पोप फ्रांसिस और नरेन्द्र मोदी का एक त्रि-सदस्यीय आयोग गठित किया जाए जो दुनिया में युद्ध और हिंसा की रोकथाम के लिए एक वैश्विक योजना बनाए। एक विकासशील देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर इतने बड़े कद का मानना भी अपने-आप में बड़ी बात है। यह कैसे संभव हुआ। बेशक इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का करिश्मा है। लेकिन साथ ही साथ उनका वह पंच प्रण भी है, जिसे उन्होंने 2022 में 15 अगस्त को देशवासियों को दिया था।
उनका पहला प्रण है, विकसित भारत। उन्होंने देशवासियों को बड़े संकल्प के साथ चलने का सुझाव दिया, जिसमें देशवासियों को विकसित भारत से कम कुछ भी नहीं चाहिए। संकल्प-शक्ति का असरदार महत्व होता है। अपने वेदों में संतों एवं ऋषि मुनियों ने कहा है, ‘मेरे संकल्प के आगे चारों दिशाएं झुक जाएं।’ इसी तरह यदि कोई व्यक्ति या देश ठान ले तो वह बड़ी-बड़ी सफलताएं प्राप्त कर सकता है। सफलता हमेशा लक्ष्य से आरंभ होती है। जिसका कोई लक्ष्य नहीं वह सफलता भी हासिल नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने हमेशा अपना लक्ष्य पहले निर्धारित किया है। अपने लक्ष्य को देशवासियों से साझा भी किया है। जनधन खाता हो या हर घर शौचालय, या फिर घर-घर बिजली पहुंचाना हो या हर गांव को सड़क से जोड़ना। इस तरह की दर्जनों योजनाओं को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले अपना लक्ष्य बनाया। आज इन सभी योजनाओं की सफलता किसी से छिपी नहीं है। ये सभी योजनाएं देश को कदम दर कदम विकसित भारत की ओर लेकर जा रही हैं। इस तरह देश ने विकसित भारत बनने का अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया है। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमें हर संभव प्रयास करना है।
स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में शामिल करने का लक्ष्य निर्धारित है। राष्ट्र संघ के अनुसार 2047 तक भारत की जनसंख्या 164 करोड़ तक पहुंच सकती है। भारत को लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपनी अर्थव्यवस्था करीब 20 ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर करनी होगी। फिलहाल भारत की अर्थव्यवस्था 3.2 ट्रिलियन डॉलर है। यानी 25 वर्षों में जीडीपी को छह गुना अधिक बढ़ाना होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि यह मुश्किल अवश्य है लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि वर्ष 2047 तक विकसित देश बनने की भारत में पूरी क्षमता है। लेकिन इस बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को तेज दौड़ लगाना होगा। भारत आज विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। आईएमएफ ने पहले यह अनुमान लगाया था कि भारत 2027 तक विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा। लेकिन भारत ने पांच वर्ष पहले ही यह उपलब्धि हासिल कर ली।
कई विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि सन् 2050 में दुनिया में तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाएं होंगी चीन, भारत और अमेरिका। सत्तर के शुरुआती दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री रहे हेनरी किसिंजर ने भी माना है कि भारत एक उभरती हुई शक्ति है। किसिंजर की पुस्तक ‘वर्ल्ड सिस्टम’ (विश्व व्यवस्था) सितंबर 2014 में प्रकाशित हुई थी। उसमें उन्होंने लिखा है, ‘भारत 21वीं सदी की व्यवस्था का एक आधार-स्तंभ होगा। विभिन्न क्षेत्रों के कौशलयुक्त और सैद्धांतिक क्रमविकास और व्यवस्था की संकल्पनाओं के केंद्र बिंदु पर जहां वह खड़ा है, अपने भूगोल, साधन स्रोतों और विवेकशील नेतृत्व की परंपरा के आधार पर एक अनिवार्य घटक होगा।’ अमेरिका जैसे देश के नेता भी यह मानने लगे हैं कि भारत बहुत जल्द विकसित देशों में शामिल हो सकता है।
दूसरा प्रण है, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति। 1947 में देश से अंग्रेज गए। लेकिन अंग्रेजियत नहीं गई। आजादी के बाद भी हमारा पिछड़ापन कायम रहने का एक सबसे बड़ा कारण यही है कि हमने मूल व्यवस्थाओं के बारे में विचार न करते हुए अंग्रेजों द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं को ज्यों का त्यों अपना लिया है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों द्वारा लादी गई बेड़ियों को हम आभूषण समझते रहे। वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि देश के प्रतिष्ठित पत्रकार दुर्गादास ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘भारत- कर्जन से नेहरू और उनके पश्चात’ में लिखा है, ‘गांधीजी की एक उक्ति मुझे याद आ रही थी। अपने और नेहरू के बीच के मतभेदों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा था- जवाहरलाल चाहते हैं कि अंग्रेज चले जाएं लेकिन अंग्रेजियत कायम रहे। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजियत चली जाए, भले ही अंग्रेज हमारे मित्रों की तरह रहते रहें।’
सभी बड़े स्वतंत्रता सेनानियों के मन में अंग्रेजों के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी संस्कृति को भी हटाये जाने का संकल्प था। इसकी बात वे लगातार करते रहते थे। इस संदर्भ में महात्मा गांधी शायद सबसे पहले 1907 में ‘हिन्द स्वराज’ की रचना की थी। ‘हिन्द स्वराज’ में गांधीजी केवल राजनीतिक स्वाधीनता की ही बात नहीं करते थे, बल्कि अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी शिक्षा को भी हटाने की पुरजोर वकालत करते थे। वह लगातार स्वदेशी की कल्पना करते थे। स्वदेशी की बात उस समय के लगभग सभी बड़े राजनेता कर रहे थे। इनमें महर्षि अरविंद, तिलक और महामना मदन मोहन मालवीय प्रमुख थे।
लेकिन आजादी के बाद लंबे समय तक नेहरू प्रधानमंत्री रहे और उनके बाद भी उनकी पार्टी ही सत्ता में रही इसलिए भारत में अंग्रेजियत हावी रही। संविधान सभा के अध्यक्ष एवं देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को इस बात की बड़ी तकलीफ रही कि पूरा संविधान अंग्रेजी भाषा में लिखा गया। जबकि वे चाहते थे कि भारत का संविधान किसी न किसी भारतीय भाषा में हो। अंग्रेजियत के केंद्र बिंदु में अंग्रेजी रही है। इसके अलावा भारतीय संस्कृति को भी पाश्चात्य संस्कृति के आगे बौना बना के रखा गया। जबकि देश की राज भाषा हिन्दी है। यदि आजादी के बाद से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा की तरह सम्मानित और प्रसारित किया जाता तो गुलामी की मानसिकता से कब की मुक्ति मिल गई होती। लेकिन यह बीड़ा भी प्रधानमंत्री ने ही उठाया है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दी में भाषण दिया था। वह दुनिया भर के देशों का साझा मंच संयुक्त राष्ट्र संघ का था। उनके बाद फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों से अपना भाषण हिन्दी में ही दिया है। इससे सिर्फ हिन्दी का प्रसार नहीं हुआ बल्कि उन सभी देशों, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दी में भाषण दिया, वहां भारतीय संस्कृति को भी एक नई पहचान मिली है।
तीसरा प्रण अपनी विरासत पर गर्व करना है। हमारे ऋषियों ने कहा है- ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ यानी पूरी पृथ्वी के लोगों को अपना परिवार समझो। अपना देश लंबे समय तक सोने की चिड़िया कहलाता रहा है। भारत ने हजारों वर्ष के इतिहास में धन-धान्य से संपन्न होते हुए भी कभी किसी देश पर हमला नहीं किया। किसी देश को गुलाम नहीं बनाया। कभी इस देश में दुनिया भर के छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा विश्वविद्यालय से लेकर विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे कई भारतीय विश्वविद्यालय पूरी दुनिया का शिक्षा का केंद्र हुआ करता था। जहां अंग्रेजी में शिक्षा नहीं दी जाती थी। बल्कि भारत के इन पौराणिक विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं में ही शिक्षा दी जाती थी। तब अपना देश दुनिया में सबसे समृद्ध था। देश के इन्हीं विरासतों पर भारतवासियों को गर्व है। पूरा देश इन्हीं विरासतों को फिर से स्थापित करने को वचनबद्ध है। आज पश्चिम के देशों में भारतीय दर्शन, चिंतन, योग, वेदांत, तंत्र और आयुर्वेद आदि को आत्मसात करने की होड़ लगी है। इसीलिए मार्क-ट्वेन ने कहा था, ‘भारत मानव जाति का पालना, मानव भाषा की जन्मस्थली, इतिहास की जननी, पौराणिक कथाओं की दादी और परंपरा की परदादी रहा है। मानव इतिहास में सर्वाधिक मूल्यवान और सर्वाधिक शिक्षाप्रद सामग्री का खजाना केवल भारत में निहित है।’
“ यदि आजादी के बाद से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा की तरह सम्मानित और प्रसारित किया जाता तो गुलामी की मानसिकता से कब की मुक्ति मिल गई होती। लेकिन यह बीड़ा भी प्रधानमंत्री ने ही उठाया है।”
देश का चौथा प्रण एकता और एकजुटता है। एकता की ताकत ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के सपनों के लिए अहम है। साथ ही हिन्दी में वह गुण और शक्ति है, जो सभी भारतीयों को एक माले में पिरो कर रखता है। भले ही देश के कुछ गैर हिन्दी भाषी नेता अपने-अपने राजनीतिक हित साधने के लिए हिन्दी के विरोध में बोल लें लेकिन यह उन्हें भी पता है कि हिन्दी भारत को समृद्ध एवं एकजुट करने की शक्ति रखती है। जरूरत भारतवासियों को इसकी है कि वे अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ वाली नीति अपनाने वाले राजनेताओं से बचकर रहें।
पांचवां प्रण नागरिकों के कर्तव्य हैं। किसी भी अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़ा रहता है। बिना कर्तव्य के अधिकार का कोई तात्पर्य नहीं। इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा के अनावरण के साथ राजपथ का नाम ‘कर्तव्य पथ’ कर दिया गया। यह प्रधानमंत्री मोदी के स्वाधीनता के अमृत काल में नए भारत के लिए ‘पंचप्रण’ के आह्वान के दूसरे प्रण के अनुकूल है। लोकतंत्र की सफलता और समृद्ध भारत के लिए यह आवश्यक है कि समाज अपने अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक हो। यदि देशवासी अपने अधिकार की तरह अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहें तो देश तेजी से समृद्ध भारत बन सकता है। आईएमएफ ने पहले यह अनुमान लगाया था कि भारत 2027 तक विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा। लेकिन भारत ने पांच वर्ष पहले ही यह उपलब्धि हासिल कर ली।