कांग्रेस समेत 26 विपक्षी पार्टियों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में तो सत्ताधारी एनडीए ने उसी दिन दिल्ली में 2024 की रणनीति पर मंथन किया। बेंगलुरु में विपक्षी पार्टियों ने 2004 में गठित यूपीए का अवसान कर नया गठबंधन इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस यानी आई.एन.डी.आई.ए. बनाया। उधर, 13 दलों के साथ साल 1998 में बनी एनडीए के घटक दलों की संख्या 38 तक पहुंच गई है। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हटाने के एकमात्र ध्येय के साथ गठित विपक्षी मोर्चा अपने मंसूबे में कामयाब हो पायेगा? या पीएम मोदी तीसरी बार सत्ता संभालेंगे?
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में मुकाबला किसके बीच होगा? इसकी तस्वीर साफ हो गई है। कांग्रेस समेत 26 विपक्षी पार्टियों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में और एनडीए की 38 पार्टियों ने उसी दिन दिल्ली में 2024 की रणनीति पर मंथन किया। बेंगलुरु में विपक्षी पार्टियों ने दो दिन तक मंत्रणा करने के बाद नया गठबंधन बनाया। इसका नाम इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस यानी आई.एन.डी.आई.ए. रखा। गठबंधन के नये नामकरण को लेकर राजनीतिक पंडितों का कहना है कि इसका नाम आई.एन.डी.आई.ए. जरूर है लेकिन इसमें शामिल दलों की सोच भारत से अति दूर है। उनकी दलील है कि सर्जिकल स्ट्राइक व एयर स्ट्राइक जैसे भारतीय सेना के शौर्यपूर्ण कार्य पर सवाल उठाना, कोरोना वैक्सीन जैसे वैज्ञानिकों की उपलब्धियों पर प्रश्नचिन्ह लगाना, विदेश में जाकर देश की खिल्ली उड़ाना आदि इनकी फितरत रही है। उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने इसी को और स्पष्ट तरीके से कहा कि इंडिया नाम लगा लेने से आत्मा और संस्कार में रची-बसी विभाजनकारी सोच और भारत विरोधी दृष्टि समाप्त नहीं हो जाएगी। उधर, 13 दलों के साथ साल 1998 में बनी एनडीए का कुनबा और अधिक बड़ा हो गया है। चिराग पासवान ने एनडीए का दामन थाम लिया है। चिराग पासवान के अलावा 18 जुलाई की बैठक में कई अन्य पार्टियां भी एनडीए में शामिल हुईं। ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) भी एनडीए का हिस्सा बन गईं हैं। इसके अलावा एकनाथ शिंदे गुट की शिवसेना, अजित पवार की एनसीपी, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल और पवन कल्याण की जन सेना भी एनडीए के नये सहयोगी दल हैं।
ऐसे में किस गठबंधन में कितना दम है इस सवाल का जवाब तो फिलहाल एनडीए ही है। भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के पास लोकसभा में 350 से ज्यादा सांसद हैं। जबकि,विपक्ष की बैठक में जितनी पार्टियां शामिल हुईं हैं उनके पास लगभग 150 सांसद ही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एनडीए के 25 साल पूरे होने पर इसकी नई परिभाषा दी। उन्होंने कहा, एन से न्यू इंडिया, डी से डेवलपमेंट और ए से एस्पिरेशन। साल 2004 में गठित यूपीए का अवसान कर विपक्षी गठबंधन का नया नाम इंडिया रखने के पीछे सोच यह भी रही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर सभाओं में इंडिया का नाम लेते हैं इसीलिए अब उनके लिए इंडिया बोलकर विपक्ष पर वार करना मुश्किल होगा। हालांकि पीएम मोदी ने विपक्षी दलों की इस सोच की यह कहकर हवा निकाल दी कि इंडिया नाम लगा लेने से कुछ नहीं हो जाता। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी इंडिया लगाया था। इंडियन मुजाहिद्दीन में भी इंडिया है। पीपुल्स फ्रंट आॅफ इंडिया में भी इंडिया है। लेकिन दोनों आतंकवादी संगठन हैं। पीएम मोदी ने आगे कहा कि विपक्ष बिखरा हुआ है और हताश है। विपक्ष के रवैये से ऐसा लग रहा है कि उनको लंबे समय तक सत्ता में आने की इच्छा नहीं है।
विपक्षी गठबंधन के नये नाम पर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने कहा कि 1885 में कांग्रेस का गठन अंग्रेजों ने किया। हमने पीपुल्स फ्रंट को बैन किया वो भी खुद को इंडिया कहते हैं। आज के समय में इंडिया का नाम जोड़ने का जो फैशन है वह अर्बन-नक्सलवाद से संबंधित है। वे खुद को वैध करने के लिए इंडिया नाम जोड़ देते हैं और यह सभी अर्बन नक्सलवादी हैं। हालांकि सबसे कड़ा प्रहार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया। उन्होंने ट्वीट कर तंज कसा कि कौआ अपना नाम हंस रख ले तो उसका स्वभाव नहीं बदल जायेगा। वह मोती नहीं चुगेगा। अमावस्या की काली रात को पूर्णिमा का नाम देने से वह शीतल और प्रकाशवान नहीं हो जाएगी। सीएम ने कहा कि नाम बदलने से इनका मूल स्वभाव नहीं बदल जाएगा। ऐसे ही इंडिया नाम लगा लेने से आत्मा और संस्कार में रची-बसी विभाजनकारी सोच और भारत विरोधी दृष्टि समाप्त नहीं हो जाएगी।
बेंगलुरु में 26 दलों की इस जुटान की मोहक तस्वीरें मीडिया में यह बताने के लिए आई कि यह गठबंधन इस बार केंद्र से मोदी सरकार को उखाड़ फेंकेगा। वैसे पांच साल पहले भी उसी बेंगलुरू से इसी तरह की विपक्षी एकजुटता की एक तस्वीर आई थी। उसमें तमाम विपक्षी नेता एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले संकल्प ले रहे थे कि 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी सरकार को सत्ता से हटाना है। इस संकल्प को सिद्ध करने के लिए एक दूसरे के जन्मजात दुश्मन माने जाने वाले कई दल साथ भी आ गये थे। लेकिन चुनाव का नतीजा यह आया कि भाजपा 2014 में जीती 282 लोकसभा सीटों के मुकाबले अकेले दम पर 303 सीटें जीत लाई।
अब 2018 की तरह 2023 में भी लगभग वही विपक्षी चेहरे एक बार फिर बेंगलुरु में एकत्रित हुए हैं ताकि 2024 के लोकसभा चुनावों में मोदी सरकार को सत्ता से हटाया जा सके। विपक्ष की यह कवायद रंग लायेगी या एक बार फिर सत्ता में मोदी की सरकार ही आयेगी यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा। लेकिन विपक्ष जहां सत्ता में आने की जोड़तोड़ अभी कर ही रहा है कि पीएम मोदी ने तीसरे टर्म के लिए अपनी कार्ययोजनाओं का खाका देश के सामने रख दिया। दिल्ली के प्रगति मैदान में 123 एकड़ में फैले नए इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर ‘भारत मंडपम’ के उद्घाटन के अवसर पर आत्मविश्वास से लबरेज प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह मोदी की गारंटी है कि तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीन शीर्ष इकोनॉमी में शामिल होगा। अपने ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर मैं भारत को शीर्ष तीन इकोनॉमी में खड़ा करने की गारंटी दे रहा हूं। हमारे पहले कार्यकाल में भारत की इकोनॉमी 10वें स्थान पर थी, जो दूसरे कार्यकाल में पांचवें स्थान पर पहुंच गई।
बहरहाल, देखा जाये तो मुख्य मुकाबले के लिए तैयारियां दोनों ओर से भरपूर की जा रही हैं। दोनों ओर से सबसे ज्यादा डोरे छोटी पार्टियों पर डाले जा रहे हैं। छोटी पार्टियों को पता है कि केंद्र की राजनीति में भाजपा या कांग्रेस के छाते के नीचे खड़े होकर ही बचा जा सकता है। इसलिए छोटी पार्टियां वंचितों और शोषितों की आवाज उठाने के नाम पर और संविधान को बचाने की दुहाई देते हुए अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार एनडीए या यूपीए के मंच पर बैठ रही हैं। वैसे विपक्ष के पास इस बार नये चेहरे के रूप में नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे तो हैं ही साथ ही वह अरविंद केजरीवाल को भी कांग्रेस के साथ लाने में सफल रहा है। यही नहीं, केरल में एक दूसरे की दुश्मन और बंगाल में गठबंधन सहयोगी कांग्रेस और वामदलों के साथ सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस भी आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन का हिस्सा है। विपक्ष के इस गंठबंधन में आधी अधूरी शिवसेना और शरद पवार की एक चौथाई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी है।
हालांकि कुछ समय पहले तक विपक्षी एकता के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा चुके केसीआर समेत वाईएस जगनमोहन रेड्डी, चंद्रबाबू नायडू, मायावती और नवीन पटनायक जैसे बड़े चेहरे इस महामंच से बाहर हैं। वैसे प्रधानमंत्री पद के दर्जनों दावेदारों के साथ गठित नये गठबंधन की असली अग्नि परीक्षा सीटों की शेयरिंग को लेकर होनी हैं। विपक्षी दल पिछली दो बैठकों में इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट निर्णय करने से बचते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर रुख साफ किए बगैर एकता का मसला आगे नहीं बढ़ सकता। भाजपा द्वारा विगत चुनावों में हाशिए पर धकेले गए क्षेत्रीय दल फिर से खड़े होने की फिराक में हैं। ऐसे में उनका पूरा जोर इसी बात पर रहेगा कि उनके राज्यों से कांग्रेस मैदान से हट जाए। इससे कांग्रेस को मिलने वाले वोट भी उनकी झोली में आ सके।
कांग्रेस यदि विपक्षी दलों के इस प्रस्ताव को मंजूर कर लेती है तो उसका जनाधार और संगठन.दोनों कमजोर पड़ जाएंगे। ऐसे में कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय दलों का यह प्रस्ताव गले की फांस बना हुआ है। मुंबई में होने वाली विपक्षी दलों की तीसरी बैठक में ही कुछ स्पष्ट हो पाएगा कि यदि ऐसा कोई प्रस्ताव आता है तो कांग्रेस क्या स्टैंड लेती है। कांग्रेस इस मुद्दे पर दोराहे पर खड़ी है। यदि विपक्षी दलों का सीट शेयरिंग प्रस्ताव स्वीकार करती है तो पहले से ही भाजपा द्वारा कमजोर कर देने के बाद और कमजोर हो जाएगी। यदि कांग्रेस प्रस्ताव का विरोध करती है कि विपक्षी एकता का होना संभव नहीं होगा। ऐसे में विपक्षी को एकता में अड़चन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने का मौका मिल जाएगा। कांग्रेस फिलहाल ऐसा बिल्कुल नहीं चाहेगी।
यही वजह है कि बेंगलुरु मीटिंग में कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पार्टी को पीएम पद की चाहत नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने खुद ही यह बात कही है। उन्होंने कहा कि हमारा इरादा कांग्रेस के लिए सत्ता हासिल करना नहीं है बल्कि भारत के संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की रक्षा करना है। पार्टी को पीएम पद नहीं चाहिए कहकर कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस का ये फैसला लेना बहुत ही सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। लेकिन सवाल उठता है कि पीएम पद की दावेदारी से खुद को पीछे हटाकर बड़ा दिल दिखाने वाली कांग्रेस पार्टी अब सीटों के समझौता के मुद्दे पर भी क्या पीछे हटने को तैयार होगी?
गठबंधन में पीएम पद के दावेदारों की सूची काफी लंबी है। पीएम पद की रेस में एक तरफ जहां नीतीश कुमार, शरद पवार, ममता बनर्जी हैं तो दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल का सपना भी किसी से छिपा नहीं है। वहीं कांग्रेस ने भले ही खुद को पीएम पद की दावेदारी की रेस से हटा लिया है लेकिन सारे दरवाजे बंद नहीं किए हैं। पार्टी को पता है कि चुनाव के बाद अगर कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आती है तो पीएम पद पर उसकी ही दावेदारी होगी। कांग्रेस ने गठबंधन में शामिल 26 पार्टियों में सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी होने के नाते एक कदम आगे बढ़ाते हुए पीएम पद की दावेदारी से खुद को हटाया है।
अब जब सीट शेयरिंग की बात आएगी तब कांग्रेस अपने उम्मीदवार को उतारने के लिए अन्य पार्टियों को अपनी तरह ही बड़ा दिल दिखाने को कह सकती है। पार्टी किसी भी हाल में इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हराना चाहती है, क्योंकि कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनाव में लगातार हार का सामना कर रही है। ऐसे में अगर इस बार का चुनाव भी हारती है तो पार्टी को अपना सियासी वजूद बचाए रखने में मुश्किल हो सकता है।
बहरहाल, कांग्रेस की चार राज्यों में खुद की और तीन राज्यों में गठबंन की सरकार है। कहीं डीएमके तो कहीं राजद-जेडीयू व जेएमएम के साथ गठबंधन में हैं। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित कई दूसरे दलों के नेता राय व्यक्त कर चुके हैं कि कांग्रेस उनके राज्यों से दूर रहे। ये दल नहीं चाहते कि भाजपा के साथ-साथ उन्हें कांग्रेस से भी चुनावी मुकाबला करने पड़े। ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रीय दलों का सत्ता में हिस्सेदारी का सपना कमजोर पड़ता है। ममता बनर्जी ने सार्वजनिक मंच से कहा था कि ‘कांग्रेस वहीं लड़े जहां उसकी मजबूत पकड़ है तो हम उसका समर्थन करेंगे। लेकिन उसे भी दूसरे दलों का समर्थन करना होगा।’
यह निश्चित है कि कांग्रेस को यदि देश और दिल्ली की राजनीति करनी है तो विपक्षी दलों के सीट शेयरिंग फॉर्मूले को नकारना होगा। फिलहाल कांग्रेस तेल और तेल की धार देखने के मूड में है। कांग्रेस अभी पूरी ताकत से विपक्षी दलों के साथ मिलकर केंद्र की भाजपा सरकार के प्रति हमलावर की मुद्रा में है और इस तेवर को पीएम पद सहित किसी तरह के मुद्दे को हवा देकर कमजोर नहीं करना चाहती।
विपक्षी एकता की असली चुनौती मुंबई में होने वाली तीसरी बैठक में होगी। यह भी संभव है कि इस बैठक में भी सीट शेयरिंग, पीएम पद तथा चुनाव लड़ने के राष्ट्रीय मुद्दे तय नहीं किए जाए। बैठक में संचालन समिति तय हो सकती है। इस तरह की कवायद करने को कुश्ती में दंड बैठक से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता। भाजपा से मुकाबले में आने के लिए विपक्षी दलों को असली मुद्दों पर आना पड़ेगा। सीट शेयरिंग सहित अन्य मुद्दों से पता चल सकेगा कि विपक्षी एकता में कितना दमखम है।
बहरहाल, 543 सीटों पर होने वाले लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर एनडीए और आई.एन.डी.आई.ए. के बीच मुकाबले की रणनीति बन रही है। विपक्षी एकजुटता के फॉर्मूले के अनुसार गठबंधन की मंशा 450 सीटों पर एनडीए के खिलाफ एक उम्मीदवार उतारने की है। अगर ऐसा होता है तो दोनों गठबंधनों के बीच आमने-सामने का चुनाव होगा। साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव का परिणाम देखें तो भाजपा ने अकेले 303 सीटें जीती थी। 52 सीटें अपने नाम करके कांग्रेस दूसरे नंबर पर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। कांग्रेस के बाद 24 सीटें पाकर डीएमके दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और टीएमसी 23 सीटों के साथ चौथे नंबर पर रही। वहीं शिवसेना ने 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी और जदयू के 16 सांसद थे।
फिलहाल 26 विपक्षी दलों का जो गठबंधन बना है उसमें डीएमके, टीएमसी, जदयू और शिवसेना शामिल हैं। जिसका मतलब है कि पिछले चुनाव में जीती गई 82 सीटों पर ये पार्टियां अपने उम्मीदवार तो उतारेंगी ही जहां दूसरे नंबर पर रही थीं वहां पर भी दावा करेंगी। इसी तरह पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, दिल्ली, पंजाब व केरल में भी सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस के लिए मुश्किल होगी। ऐसे में किसी एक पक्ष को समझौता करना पड़ सकता है। यूपी में समाजवादी पार्टी अधिकतम सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारने को लेकर अडिग है। इतना ही नहीं, छोटे दल, बड़ी पार्टियों को नसीहत भी दे रहे हैं। यानी पिछले अनुभवों को देखते हुए पूत के पांव पालने में ही दिखाई देने लगे हैं। ऐसे में नया गठबंधन आई.एन.डी.आई.ए. के जरिए प्रधानमंत्री मोदी को परास्त करने की मंशा पूरी होगी या नहीं इसके लिए तेल और तेल की धार देखते रहिए।
बिन दूल्हा विपक्षी बारात
बेंगलुरु में विपक्षी दलों का नया गठबंधन आई.एन.डी.आई.ए. बन तो गया है लेकिन सीटों के बंटवारे से लेकर प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी तय करना बेहद कठिन होने वाला है। यानी विपक्ष ने बारात तो सजा ली है लेकिन अभी तक दूल्हा तय नहीं हुआ है। दर्जनों पीएम पद के दावेदारों के बीच बैठक के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि उनकी पार्टी की दिलचस्पी प्रधानमंत्री पद में नहीं बल्कि पीएम मोदी को हटाने में है। कांग्रेस के पीएम पद की दावेदारी से पीछे हटने के बाद अन्य दलों के लिए मानो दावेदारी के रास्ते खुल गए हैं। 2024 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? इसको लेकर विपक्षी खेमे में आवाज उठने लगी है। टीएमसी ने सबसे पहले दावेदारी ठोकी है। टीएमसी सांसद शताब्दी रॉय ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए पीएम पद पर दावा ठोक दिया। कहा कि 'हम चाहेंगे की ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनें। जाहिर है ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल को उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देखते हैं। ममता बनर्जी ने इस बारे में न तो इनकार किया है और ना ही स्वीकार, वहीं अरविंद केजरीवाल का सपना किसी से छिपा नहीं है। वह अपने लगभग सभी भाषणों में इस बात की चर्चा करते हैं और मंत्रमुग्ध होते हैं कि देश का पीएम पढ़ा-लिखा होना चाहिए। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदावर की जिस चुनौती को विपक्षी दल झेल रहे हैं, वह भाजपा के सामने नहीं हैं। भाजपा से हाथ मिलाने वाले सभी 38 दलों को पता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस पद के उम्मीदवार होंगे। हालांकि भाजपा के लिए भी क्षेत्रीय दलों के साथ सीट शेयरिंग मुश्किल भरा रास्ता होगा, किन्तु इतना नहीं जितनी मुश्किलों का सामना विपक्षी दलों को करना पड़ेगा। सीट शेयरिंग व प्रधानमंत्री पद का मुद्दा सुलझाना विपक्षी दलों के लिए लोहे के चने चबाने से कत्तई कम नहीं है।
सत्ताधारी एनडीए के घटक दल
भाजपा, शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) , राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पारस), लोक जन शक्ति पार्टी (रामविलास पासवान), अपना दल (सोनेलाल), एआईएडीएमके, एनपीपी, एनडीपीपी, एसकेएम, आईएमकेएमके, आजसू, एमएनएफ, एनपीएफ, आरपीआई, जेजेपी, आईपीएफटी (त्रिपुरा), बीपीपी, पीएमके, एमजीपी, एजीपी, निषाद पार्टी, यूपीपीएल, एआईआरएनसी, टीएमसी (तमिल मनीला कांग्रेस), शिरोमणि अकाली दल सयुंक्त, जनसेना, एनसीपी (अजित पवार), हम, रालोसपा, सुभासपा, बीडीजेएस (केरल), केरल कांग्रेस (थॉमस), गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट, जनातिपथ्य राष्ट्रीय सभा,यूडीपी, एचएसडीपी, जन सुराज पार्टी (महाराष्ट्र) और प्रहार जनशक्ति पार्टी (महाराष्ट्र)।
विपक्षी गठबंधन के साथी दल
कांग्रेस, डीएमके, टीएमसी, जदयू, शिवसेना (यूबीटी), एनसीपी (शरद पवार), सीपीआईएम, समाजवादी पार्टी, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, सीपीआई, आम आदमी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, केरल कांग्रेस (एम), आरजेडी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, सीपीआई (एमएल), आरएलडी, मनीथानेया मक्कल काची (एमएमके), एमडीएमके, वीसीके, आरएसपी, केरल कांग्रेस, केएमडीके, अपना दल (कमेरावादी) और एआईएफबी।