दक्षिण भारत के एकमात्र राज्य कर्नाटक जहां भाजपा की सत्ता थी वहां उसे मुंह की खानी पड़ी है। 224 विधानसभा सीटों वाले कर्नाटक में मतदाताओं ने कांग्रेस को 135 सीटों के साथ स्पष्ट जनादेश दिया है। भाजपा यहां 66 सीटों पर सिमट गई है। विपक्षी दल कर्नाटक में भाजपा की हार पर तो खुशी मना रहे हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में संपन्न दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव व नगर निकाय में मिली भाजपा की प्रचंड जीत को नजरअंदाज कर रहे हैं। यहां नगर निगम की सभी 17 सीटों पर भाजपा का कमल खिला है। उत्तर प्रदेश में नगर निगम चुनाव को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा था। इसके पीछे की वजह योगी सरकार के पहले साल में लिए गए निर्णयों का शहरी जनता के बीच प्रभाव का आकलन किया जाना था। अब जिस प्रकार के परिणाम सामने आए हैं उससे स्पष्ट है कि राज्य की जनता को योगी का काम रास आ रहा है।
उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में जहां भाजपा का कमल जमकर खिला वहीं दक्षिण भारत के एकमात्र राज्य कर्नाटक जहां भाजपा की सत्ता थी वहां उसे मुंह की खानी पड़ी है। 224 विधानसभा सीटों वाले दक्षिण के द्वार पर कांग्रेस ने 135 सीटें जीतते हुए भाजपा को पटखनी दे दी है। भाजपा यहां 66 सीटों पर सिमट गई है तो वहीं जेडीएस के खाते में 19 सीटें आई है। कांग्रेस के लिए यह जीत किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं है। कांग्रेस पिछले एक दशक से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही है। 2014 के बाद से अब तक 50 से ज्यादा चुनावों में कांग्रेस को हार मिली। लेकिन पिछले 6 महीने के अंदर यह कांग्रेस की दूसरी बड़ी जीत है। पहले हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक। हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक की जीत कांग्रेस का ग्राफ बढ़ने का संकेत दे रहे हैं। यह ग्राफ जिस तरह से बढ़ रहा है, उसने भाजपा ही नहीं अंदर ही अंदर तीसरे मोर्चे की कोशिशों में लगी पार्टियों को भी बड़ा संदेश दे दिया है।
दक्षिण में भाजपा की सिर्फ इसी राज्य में सरकार थी और इस हार के बाद वह एक राज्य भी उसके हाथ से निकल गया। इसी साल तेलंगाना में चुनाव है और भाजपा इस चुनाव की तैयारी लंबे वक्त से कर रही है। लेकिन कर्नाटक की हार के बाद उसकी चुनौती और बढ़ गई है। देश के कई राज्यों में भाजपा की सरकार है लेकिन उसका विजय रथ दक्षिण में आकर रुक सा जाता है। कर्नाटक वह राज्य था जहां से भाजपा जीतकर एक साथ कई संदेश दे सकती थी। कर्नाटक में हार के साथ ही दक्षिण का वह अकेला राज्य भाजपा के हाथ से निकल गया। कर्नाटक वह राज्य था जिसको जीतकर भाजपा पूरे दमखम के साथ तेलंगाना चुनाव के लिए मैदान में उतरती। तेलंगाना में इस बार मुकाबला भाजपा और केसीआर की पार्टी बीआरएस के बीच देखा जा रहा था लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद शायद यह लड़ाई कुछ और कठिन हो गई लगती है।
इस साल चार राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। कर्नाटक में हारने के बाद विपक्षी दलों को भाजपा पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। कर्नाटक में मिली इस हार से जहां भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को एक नई आशा की किरण नजर आ रही है। इसका उदाहरण प्रस्तुत किया समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यूपी निकाय चुनाव में हार पर मुंह सिल लेने वाले अखिलेश यादव ने कर्नाटक में कांग्रेस की प्रचंड जीत को भाजपा के अंत की शुरुआत करार दिया। उन्होंने ट्वीट कर भाजपा का निशाना साधते हुए लिखा कि कर्नाटक का संदेश ये है कि भाजपा की नकारात्मक, सांप्रदायिक, भ्रष्टाचारी, अमीरोन्मुखी, महिला-युवा विरोधी, सामाजिक-बंटवारे, झूठे प्रचारवाली, व्यक्तिवादी राजनीति का ‘अंतकाल’ शुरू हो गया है। ये नये सकारात्मक भारत का महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व वैमनस्य के खिलाफ सख्त जनादेश है। इसी तरह शिवसेना नेता संजय राऊत व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर महबूबा मुफ्ती तक ने भाजपा के खत्म होने की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी।
विपक्षी दल कर्नाटक में भाजपा की हार पर तो खुशी मना रहे हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में संपन्न दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव व नगर निकाय में मिली भाजपा की प्रचंड जीत को नजरअंदाज कर रहे हैं। आजम खान के गढ़ रामपुर की स्वार विधानसभा सीट व मिर्जापुर की छानबे सीट पर भाजपा समर्थित अपना दल प्रत्याशियों ने जीत का परचम लहराया। स्वार सीट आजम के बेटे अब्दुल्ला आजम की विधायकी रद्द होने के बाद खाली हुई थी। यहां आजम ने जमकर पसीना बहाया था लेकिन जनता ने एक बार फिर उन्हें नकार दिया। साथ ही नगर निगम की सभी की सभी 17 नगर निगमों पर भी भाजपा का कमल खिल गया। नगरपालिकाओं व नगर पंचायतों पर भी केसरिया ध्वज शान के साथ लहराया। हालांकि एक सच यह भी है कि उत्तर भारत में जीत का परचम फहराने वाली भाजपा के विजय रथ के पहिए दक्षिण भारत में कर्नाटक से बाहर जाकर थम से जाते हैं। भाजपा इस बार इसी रवायत को बदलने की कोशिशों में जुटी हुई थी। लेकिन कर्नाटक की हार ने उसकी चुनौतियों को और अधिक बढ़ा दिया है।
बहरहाल, अखिलेश यादव और उद्धव ठाकरे जैसे नेता कांग्रेस की जीत में अपनी खुशी ढूंढने की कोशिश करते दिखाई दिए। लेकिन कांग्रेस की इस सफलता से पीएम पद का ख्वाब देख रहे नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के सपनों को गहरा धक्का लगा है। कांग्रेस पिछले एक दशक से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही है। 2014 के बाद से अब तक 50 से ज्यादा चुनावों में कांग्रेस को हार मिली है। कुछ चुनिंदा राज्य ही ऐसे हैं, जहां कांग्रेस ने जीत हासिल की है। पिछले छह महीने के अंदर ये कांग्रेस की दूसरी बड़ी जीत है। अगर ये कहें कि डूबती कांग्रेस को पहले हिमाचल प्रदेश और फिर कर्नाटक में जीत का सहारा मिला तो गलत नहीं होगा। इससे कांग्रेस को नैतिक आधार पर मजबूती मिलेगी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं में नई ऊर्जा आएगी। आने वाले जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से दो की सत्ता कांग्रेस के पास है। ऐसे में कांग्रेस इन दोनों राज्यों को भी बरकरार रखने की कोशिश करेगी। हालांकि उसकी यह कोशिश कितना परवान चढ़ पायेगी यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।
बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी पीएम बनने का ख्वाब संजोए हुए हैं। अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार विपक्षी एकता की कवायद के तहत तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव से लेकर ममता बनर्जी तक और अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, सीताराम येचुरी, उद्धव ठाकरे से लेकर ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक तक की चौखट पर दस्तक दे चुके हैं। वहीं, ममता बनर्जी भी नीतीश कुमार व अरविंद केजरीवाल समेत अन्य नेताओं से मुलाकात कर चुकी हैं। साथ ही खुले मंच से विपक्षी एकता की वकालत करती देखी गईं हैं। ऐसे में इस बात में कोई दो राय नहीं है कि नीतीश और ममता सीएम की कुर्सी पर बैठकर पीएम बनने का रास्ता खोज रहे हैं।
विपक्ष इस बात से संतोष कर सकता है कि लोकसभा चुनाव में सिर्फ मोदी लहर का कहर नहीं झेलना पड़ेगा। बल्कि कांग्रेस भी भाजपा का मुकाबला करने के लिए जमीनी स्तर पर मजबूत होती दिख रही है। लेकिन ममता और नीतीश के लिए कर्नाटक में कांग्रेस की जीत किसी सदमे से कम नहीं होगी। दोनों ही नेताओं को यह पता है कि अपनी संसद सदस्यता गंवाने वाले राहुल गांधी की सजा पर अगर रोक लग जाती है तो कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस जीत के बाद राहुल गांधी को ही प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहेगा। ऐसे में नीतीश और ममता का पीएम बनने का सपना टूटता हुआ दिख रहा है।
वैसे 2018 में भी कर्नाटक में कांग्रेस व जेडीएस की मिली जुली सरकार के शपथ समारोह में विपक्षी एकता का जबर्दस्त नजारा दिखा था। उस विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी तो बनकर उभरी लेकिन बहुमत के आकंड़े से कम सीटें मिलने की वजह से जेडीएस व कांग्रेस ने गठजोड़ कर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया था। तब भी कहा गया था कि अब भाजपा की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश में तो सपा व बसपा का महागठबंधन बना था पीएम मोदी को केंद्र से बेदखल करने के लिए। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह मोदी लहर चली उससे हर कोई वाकिफ है। ऐसे में यदि 2024 में भी कुछ उसी तरह का नजारा दिखे तो विपक्ष का एक होना और न होना एक बराबर ही है।
उमेश पाल मर्डर केस में अतीक अहमद के बेटे असद अहमद का एनकाउंटर हो चुका है। वहीं, अतीक व अशरफ को पत्रकार के भेष में आये तीन युवकों ने गोली मारकर हत्या कर दी। अतीक गैंग के कई शूटरों का एनकाउंटर करने में पुलिस कामयाब हुई है। अतीक गैंग इस समय मारा-मारा फिर रहा है। अतीक की पत्नी शाइस्ता परवीन इनामी अपराधी घोषित हो चुकी है। दूसरी तरफ, माफिया मुख्तार अंसारी पर भी लगातार शिकंजा कसता जा रहा है। ये मामले यूपी नगर निकाय चुनाव के मैदान में खासी चर्चा में रहे। सीएम योगी आदित्यनाथ भी जनसभाओं के दौरान इन मामलों की चर्चा करते दिखे।
उत्तर प्रदेश में नगर निगम चुनाव को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा था। इसके पीछे की वजह योगी सरकार के पहले साल में लिए गए निर्णयों का शहरी जनता के बीच प्रभाव का आकलन किया जाना था। अब जिस प्रकार के परिणाम सामने आए हैं, उसके अनुसार प्रदेश के सभी 17 नगर निगमों में भाजपा उम्मीदवारों को जीत मिली है। सीएम योगी आदित्यनाथ के दूसरे कार्यकाल में यह चुनाव सबसे बड़ा माना जा रहा था। नगर निगम का क्षेत्र काफी बड़ा होता है। ऐसे में यहां पर पार्टी की छवि के आधार पर वोट का गणित तय होता है। नगरपालिका परिषद और नगर पंचायतों में उम्मीदवारों का चेहरा भी महत्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन नगर निगम चुनाव इस मायने में अलग होता है।
महज 16 वोटों से जीत
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीती हुई 12 सीटों पर जीत का अंतर एक हजार वोटों से भी कम है। दिलचस्प बात यह है कि इन सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर भाजपा प्रत्याशी रहे हैं। बेंगलुरु क्षेत्र की जयनगर सीट पर तो कांटे की टक्कर में भाजपा से मैदान में उतरे सीके राममूर्ति ने कांग्रेस विधायक सौम्या रेड्डी को 16 वोटों के मामूली अंतर से हरा दिया। इस बार कर्नाटक के नतीजों में यह जीत का सबसे कम अंतर है। 2018 के चुनावों में सबसे कम जीत का अंतर 213 वोटों का था। नतीजों में ऐसी 8 सीटें भी सामने आई हैं, जिनमें जीत का अंतर नोटा को मिले वोट से कम है। इनमें से पांच सीटें कांग्रेस के खाते में गई हैं जबकि तीन सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। 2018 में ऐसी सीटों की संख्या सात थी जिनमें से 6 कांग्रेस के खाते में गई थीं और बाकी एक पर भाजपा को जीत मिली थी।